दशम लग्न, भाव मध्य, भाव संधि कैसे बनाते हैं ~ bhav chalit kundali

दशम लग्न, भाव मध्य, भाव संधि कैसे बनाते हैं ~ bhav chalit kundali

जन्मपत्रिका में एक पक्ष चलित कुंडली भी होता है किन्तु इसे सभी पक्ष स्वीकार नहीं करते हैं। चलित कुंडली के पक्ष और विपक्ष में दोनों प्रकार के मत पाये जाते हैं। सामान्य रूप से चलित कुंडली नहीं बनायी जाती है किन्तु जिन्हें चलित कुंडली भी बनानी हो उन्हें सर्वप्रथम दशम लग्न साधन, भाव स्पष्ट अथवा भाव मध्य, भाव संधि आदि ज्ञात करके भाव विस्तार को समझना आवश्यक होता है। इस आलेख में भाव विस्तार ज्ञात करते हुये चलित कुंडली बनाने (bhav chalit kundali) की विधि बताई गयी है।

चलित कुंडली लग्न कुंडली से भिन्न होता है। लग्न कुंडली में एक राशि एक भाव होता है अर्थात यदि लग्न स्पष्ट १ अंश हो अथवा २९ अंश हो लग्न राशि एक ही होती है और तदनुसार अन्य भावों की भी एक-एक पूरी राशि होती है। किन्तु एक मत यह मानता है कि ये वास्तविक स्थिति नहीं है इसमें जो राशि और ग्रह भावों में अंकित किये जाते हैं वास्तविक स्थिति उससे भिन्न होती है। अर्थात लग्न यदि १५ अंश हो तब तो एक राशि पूरी तरह से एक भाव होगी अन्यथा लग्न के अंश परिवर्तन होने से एक भाव में दो राशियां होती है और उसमें ग्रहों की स्थिति भी उनके अंशों के अनुसार ही होती है।

लग्न कुंडली बनाने के लिये मात्र प्रथम लग्न ही ज्ञात करना होता है किन्तु यदि हमें (भाव) चलित कुंडली बनानी हो तो हमें प्रत्येक भाव का मध्य और संधि ज्ञात करना होता है। इसके लिये हमें चारों केंद्र ज्ञात करने की आवश्यकता होती है, जिसका प्रथम केंद्र पूर्वी क्षितिज है। केंद्र का तात्पर्य होता है पूर्वी क्षितिज, ऊपरी क्षितिज, पश्चिमी क्षितिज और पाताल जिसमें से पूर्वी क्षितिज में उदित राशि पहले ही ज्ञात होता है जिसे लग्न कहते हैं।

लग्न से सप्तम ही पश्चिमी क्षितिज होता है अतः लग्न में ही ६ योग करने पर सप्तम भाव मध्य ज्ञात हो जाता है। अब आवश्यकता होती है दोनों मध्य अर्थात चतुर्थ और दशम भाव मध्य की, इनमें से कोई एक ज्ञात हो जाये तो दूसरा उसके सामने होगा अर्थात ६ योग करने पर ज्ञात हो जायेगा।

यदि ऊपरी क्षितिज (दशम) को ज्ञात किया जाय तो उसका परीक्षण संभव है किन्तु यदि पाताल मध्य को ज्ञात करें तो उसका परीक्षण कैसे करेंगे, अर्थात परीक्षण नहीं कर सकते इस कारण ऊपरी आकाश मध्य को ही अर्थात दशम भाव मध्य को ही ज्ञात किया जाता है एवं उसमें ६ राशि का योग करके चतुर्थ भाव स्पष्ट हो जाता है।

भाव मध्य

अर्थात चलित कुंडली बनाने के लिये प्रथम लग्न के पश्चात् एक अन्य भाव स्पष्ट की भी आवश्यकता होती है और वो है दशम भाव मध्य अथवा दशम लग्न। प्रथम लग्न में ६ राशि योग करने से सप्तम भाव मध्य ज्ञात होता है और दशम लग्न में ६ राशि का योग करने से चतुर्थ भाव मध्य ज्ञात हो जाता है। इस प्रकार केंद्र के चारों भाव मध्य ज्ञात हो जाते हैं और तदनन्तर पणफर व अपोक्लिम ज्ञात करना होता है।

ज्योतिष सीखें से संबंधित पूर्व के आलेखों को यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

दशम लग्न से प्रथम लग्न तक के अंशादि मान में ३ से भाग देने पर जो लब्धि हो वह दशम में योग करने पर एकादश भाव मध्य हो जायेगा और पुनः एकादश भाव मध्य में योग करने पर अथवा प्रथम लग्न में ऋण करने पर द्वादश भाव मध्य ज्ञात होगा। एकादश भाव में ६ राशि योग करने पर पंचम भाव मध्य व द्वादश भाव मध्य में ६ राशि का योग करने पर षष्ठ भाव मध्य प्राप्त होगा।

इसी प्रकार से प्रथम लग्न मान से चतुर्थ भाव मध्य तक के अंशादि का तीन भाग करने पर जो लब्धि हो वह प्रथम लग्न योग करने पर द्वितीय भाव मध्य ज्ञात होगा एवं द्वितीय भाव मध्य में पुनः योग करने पर तृतीय भाव मध्य ज्ञात होगा। द्वितीय भाव में ६ राशि योग करने पर अष्टम भाव मध्य ज्ञात होगा एवं तृतीय भाव मध्य में ६ राशि का योग करने पर नवम भाव मध्य ज्ञात हो जायेगा। इस प्रकार द्वादश भाव मध्य ज्ञात हो जायेगा और अब भाव संधियां ज्ञात करने की आवश्यकता होगी ताकि ग्रहों के राशि-अंशादि के आधार पर उनका सही-सही स्थापन किया जा सके।

भाव संधि

भाव संधि का तात्पर्य है वह बिंदु जहाँ पर पिछला भाव समाप्त हो रहा है और अगला भाव प्रारम्भ हो रहा है। ऊपर जो ज्ञात किया गया है वह भाव मध्य होता है और भाव का आरम्भ लगभग १५ अंश पूर्व व समाप्ति लगभग १५ अंश पश्चात् होती है। ये १५ अंश सामान्य रूप से कहा गया है वास्तविक स्थिति आसमान होती है।

भाव संधि ज्ञात करने की विधि अतिसरल होती है इसके लिये दो भावमध्य का योग करके उसमें २ से भाग देने पर जो लब्धि हो वही उस दोनों भावों की संधि होती है। यथा यदि द्वादश भाव मध्य १/८/१५/३५ हो और प्रथम भाव मध्य लग्न २/९/२४/४८ हो तो इसे योग करने पर १/८/१५/३५ + २/९/२४/४८ = ३/१७/४०/२३ होता है एवं इसमें २ से बहग देने पर १/२३/५०/११ होता है जो दोनों भाव की संधि है।

इसी प्रकार यदि द्वितीय भाव ३/११/३६/१८ हो तो प्रथम व द्वितीय भाव की संधि के लिये हम पहले दोनों भाव मध्य का योग करके उसमें २ से भाग दे देंगे जो इस प्रकार होगा : २/९/२४/४८ + ३/११/३६/१८ = ५/२१/१/६ ÷ २ = २/२५/३०/३

भाव (चलित) कुंडली बनाने का उदाहरण

दशम इष्ट

दिनांक ११ जून २०२५ का जो चरमिनट ज्ञात किया गया था वह ०/४७ है और सूर्यास्त ६/४७ है अर्थात दिनार्द्ध भी ६ घंटा ४७ मिनट ही है जिसे दण्डादि करने पर अर्थात ढाई से गुणा करने पर १६/५८ ज्ञात होगा है। हमें दशम लग्न साधन हेतु दिनार्द्ध की भी आवश्यकता होती है क्योंकि दशम इष्ट का साधन दिनार्द्ध से ही होता है। दशम इष्ट का सरल तात्पर्य है दिनार्द्ध से इष्ट काल तक व्यतीत काल। अर्थात यदि इष्टकाल में दिनार्द्ध को घटा दिया जाय तो दशम इष्ट ज्ञात हो जाता है। किन्तु इसे ज्ञात करने की दो विधि बताई गयी है जो पूर्वनत और पश्चिमनत में भिन्न होती है।

रात्रेः शेषमितं युतं दिनदलेनाह्नोः गतं शेषकं। विश्लेष्यं खलु पूर्वपश्चिमनतं त्रिंशच्युतं चोन्नतं॥

दशमइष्ट को नत ही कहा जाता है जो दो प्रकार का होता है पूर्वनत और पश्चिमनत। सूर्योदय काल में सूर्य पूर्वी क्षितिज में होता है तो सूर्यास्त काल का पश्चिमी क्षितिज में। इसी प्रकार सूर्योदय और सूर्यास्त के मध्यकाल को मध्याह्न कहा जाता है और इस समय सूर्य मध्य आकाश में होते हैं एवं सूर्यास्त से सूर्योदय के मध्यकाल को मध्यरात्रि कहते हैं और उस समय सूर्य पाताल में होते हैं। पूर्वनत और पश्चिमनत को मध्याह्न व मध्यरात्रि के आधार पर समझना चाहिये।

मध्याह्न से मध्यरात्रि तक सूर्य पश्चिम भाग में होते हैं और नीचे उतरते हैं, इसे पश्चिमनत कहा जाता है, इसी प्रकार मध्यरात्रि से मध्याह्न तक सूर्य उर्ध्व गमन करते हैं व पूर्वी भाग में होते हैं जिसे पूर्वनत कहा जाता है।

यदि इसे दूसरे शब्दों अथवा सरलतम रूप से समझना चाहें तो दिन के १२ बजे से रात के १२ बजे तक pm होता है जो पश्चिमनत होता है, एवं रात के १२ बजे से दिन के १२ बजे तक am होता है जो पूर्वनत होता है। किन्तु इसे मानक समय रूप में प्रयोग न करके स्थानीय समय रूप से प्रयोग किया जाता है।

यदि एक अन्य विधि से समझना चाहें तो वो यह है कि इष्टकाल में दिनार्द्ध ऋण करने पर लब्धि यदि ३० दण्ड से कम हो तो पश्चिमनत होता है और यदि ३० दण्ड से अधिक हो तो पूर्वनत होता है।

यत्सूर्यराश्यंशसमानकोष्ठे घट्यादिकं पूर्वनतेन हीनं। प्रत्याग्नतेनाढ्यमियान् विशेषो मध्यस्यसिद्धयै गणकैः प्रदिष्टः ॥

दशम इष्ट को इष्टकाल और स्थानीय जन्म समय दोनों ही आधार से ज्ञात किया जा सकता है। इष्टकाल यदि दिनार्द्ध से अधिक हो स्थानीय समयानुसार मध्याह्न १२ बजे से लेकर अगले सूर्योदय तक इस विधि से जन्म समय होने पर अधिक होगा, तो इष्टकाल में ही दिनार्द्ध को घटा देने से दशम इष्ट ज्ञात हो जायेगा। किन्तु यदि जन्म समय सूर्योदय से लेकर मध्याह्न तक के मध्य हो तो इष्टकाल दिनार्द्ध से न्यून होगा इसलिये इष्टकाल में ६० दण्ड योग करके तब दिनार्द्ध घटाने पर दशम इष्ट ज्ञात होता है।

हमारे पास उदाहरण अभ्यास हेतु इष्टकाल २३/०३ है, दिनार्द्ध १६/५८ है जो इष्टकाल से न्यून है और घट रहा है। २३/०३ – १६/५८ = ६/०५ अर्थात इसमें हमें दशम इष्ट ६/०५ मिला।

दशम लग्न

तदुपरांत जिस प्रकार प्रथम लग्न सारणी से सूर्य राशि अंश के आधार पर प्राप्त सूर्य फल में इष्टकाल का योग करके उसके निकटतम फल वाले राशि अंश को लग्न माना जाता है उसी प्रकार दशम लग्न सारणी से भी दशम इष्ट और सूर्य राशि अंश के आधार पर दशम लग्न ज्ञात किया जाता है।

हमें दशम इष्ट ६/०५ मिला, स्पष्ट सूर्य ०/१६/०७/५० है अर्थात दशम लग्न सारणी में मेष राशि के १६ अंश से हमें जो सूर्यफल प्राप्त होगा उसमें हम दशम इष्ट ६/०५ का योग करके लब्ध मान को पुनः दशमलग्न सारणी में ढूंढेंगे, जिस राशि, अंश के कोष्ठक में हमें निकटतम मान मिलेगा वही दशम लग्न होगा। ये स्थूल विधि है और अयनांश छूटने के कारण किंचित त्रुटिपूर्ण भी है, साथ ही यदि निकटतम मान को ग्रहण करके ही ज्ञात करते हैं तो एक त्रुटि वह भी होती है।

दशम लग्न ज्ञात करके उसमें ६ राशि योग करने पर चतुर्थ भाव मध्य होगा एवं लग्न में ६ राशि योग करने पर चतुर्थ भाव मध्य होगा। केंद्र भावों का मध्य ज्ञात होने के पश्चात् हम पणफर व आपोक्लिम भावों का मध्य ज्ञात करेंगे।

दशम लग्न सारणी में हमें मेष राशि के १६ अंश पर जो सूर्यफल मिलता है वह ६/७/४२ है इसमें इष्टकाल ६/०५ का योग करने पर हमें १२/१२/४२ प्राप्त होता है और पुनः दशम लग्न सारणी में ढूंढने पर वृष राशि के २१ अंश का सूर्यफल १२/०७/४४ है और २२ अंश मान १२/१८/३० है जो निकटतम है। अर्थात दशम लग्न है १/२२ कहा जा सकता है। यदि अनुमान से समझें तो यह लगभग १/२१/३० हो सकता है एवं यदि इसे और अधिक स्पष्ट करने पर १/२१/२५/२० ज्ञात होता है। अभी हम इसी से आगे बढ़ेंगे किन्तु जब आगे लग्नोदय मान से पुनः ज्ञात करेंगे तो त्रुटि स्पष्ट हो जायेगी।

भाव मध्य

लग्न ४/२६/२१/१४ है और दशम लग्न १/२१/२५/२० ज्ञात हो चुका है। अब प्रथम लग्न में ६ राशि योग करने पर १०/२६/२१/१४ सप्तम भाव मध्य ज्ञात हो जाता है एवं दशम लग्न में ६ राशि योग करने पर चतुर्थ भाव मध्य ७/२१/२५/२० ज्ञात होता है एवं इस प्रकार केंद्र के भाव स्पष्ट हो जाते हैं।

अब आगे दशम से प्रथम का अंतर ज्ञात ज्ञात करके उसे ३ से विभाजित करना है एवं दशम में तृतीयांश योग करने पर एकादश भाव मध्य होगा व पुनः योग करने पर द्वादश भाव मध्य होगा। इसी में ६ राशि योग करने पर पंचम व षष्ठ भाव मध्य भी ज्ञात हो जायेगा। इसी प्रकार प्रथम लग्न से चतुर्थ तक ज्ञात करके अष्टम व नवम भी ज्ञात किया जायेगा।

प्रथम भाव – दशम भाव = ४/२६/२१/१४ – १/२१/२५/२० = ३/५/५/५४
३/४/५५/५४ ÷ ३ = १/१/३८/३८ तृतीयांश
चतुर्थ भाव – प्रथम भाव = ७/२१/२५/२० – ४/२६/२१/१४ = २/२५/४/६
२/२५/४/६ ÷ ३ = ०/२८/२१/२२ तृतीयांश

, 0१/२१/२५/२० दशम भाव
+ १/१/३८/३८ तृतीयांश (योग)
= २/२३/३/५८ एकादश भाव मध्य, ६ राशि योग करने पर ८/२३/३/५८ पंचम भाव मध्य
+ १/१/३८/३८ तृतीयांश (योग),
= ३/२४/४२/३६ द्वादश भाव मध्य, ६ राशि योग करने पर ९/२४/४२/३६ षष्ठ भाव मध्य

, 0४/२६/२१/१४ प्रथम भाव
+ ०/२८/२१/२२ तृतीयांश (योग)
= ५/२४/४२/३६ द्वितीय भाव मध्य, ६ राशि योग करने पर ११/२४/४२/३६ अष्टम भाव मध्य
+ ०/२८/२१/२२ तृतीयांश (योग),
= ६/२३/३/५८ तृतीय भाव मध्य, ६ राशि योग करने पर ०/२३/३/५८ नवम भाव मध्य

किसी भी दो भाव की संधि ज्ञात करने के लिये दोनों भाव मध्य का योग करके उसमें २ का भाग देना होगा। उदाहरण हेतु हम द्वादश और प्रथम भाव की संधि ज्ञात करते हैं जो प्रथम भाव का आरम्भ ही होगा : (द्वादश भाव मध्य + प्रथम भाव) ÷ २ = (३/२४/४२/३६ + ४/२६/२१/१४) ÷ २ = ४/२०/३१/५५, इस प्रकार द्वादश और प्रथम भाव की संधि ४/२०/३१/५५ है जिसका तात्पर्य यह है कि यह द्वादश भाव की समाप्ति और प्रथम भाव का आरम्भ है। इसी प्रकार शेष भाव संधियां भी ज्ञात करने पर इस प्रकार से विवरण दिया जा सकता है :

भावभाव प्रारंभभाव मध्यभाव समाप्त
प्रथम४/१०/३१/५५४/२६/२१/१४५/१०/३१/५५
द्वितीय५/१०/३१/५५५/२४/४२/३६६/८/५३/१७
तृतीय६/८/५३/१७६/२३/३/५८७/७/१४/३९
चतुर्थ७/७/१४/३९७/२१/२५/२०८/७/१४/३९
पंचम८/७/१४/३९८/२३/३/५८९/८/५३/१७
षष्ठ९/८/५३/१७९/२४/४२/३६१०/१०/३१/५५
सप्तम१०/१०/३१/५५१०/२६/२१/१४११/१०/३१/५५
अष्टम११/१०/३१/५५११/२४/४२/३६०/८/५३/१७
नवम०/८/५३/१७०/२३/३/५८१/७/१४/३९
दशम१/७/१४/३९१/२१/२५/२०२/७/१४/३९
एकादश२/७/१४/३९२/२३/३/५८३/८/५३/१७
द्वादश३/८/५३/१७३/२४/४२/३६४/१०/३१/५५

अब हमने पूर्व में जो श्रीवेंकटेश्वर शताब्दि पंचांग से सूक्ष्म इष्टकाल, सूक्ष्म लग्न, ग्रह स्पष्टादि किया था उसी के आधार पर चलित कुंडली बनाने का अभ्यास करेंगे और इसके लिये हमें उसके इष्टकाल, लग्न स्पष्ट व ग्रहस्पष्ट की आवश्यकता होगी जो इस प्रकार है :

सूक्ष्म लग्न स्पष्ट हमने भिन्न आलेख में स्वोदय आधार से किया था जिसके अनुसार यहां दिया गया है। अब यहां हमारे पास इष्टकाल है २३/०३ और यह इष्टकाल भी सूक्ष्म है एवं लग्न स्पष्ट ४/२६/२१/१४ है। नियमानुसार हमें दशम इष्ट ६/०५ मिला, उससे दशम लग्न १/२१/२५/२० मिला।

  • सूर्य : ०/१६/०७/५०
  • चंद्र स्पष्ट : १/२०/२१/१५
  • मंगल : ३/११/३५/४०
  • बुध : ११/२०/२७/०३
  • गुरु : १/२७/०/३८
  • शुक्र : ११/०५/४५/३२
  • शनि : ११/०३/३४/२७
  • राहु : ११/०/५६/३४
  • केतु : ५/०/५६/३४
चलित कुंडली
चलित कुंडली

उपरोक्त ग्रहस्पष्ट और भाव स्पष्ट के आधार पर जो चलित भाव कुंडली बनती है वो यहां दी गयी है जिसका अवलोकन करके समझा जा सकता है। लग्न कुंडली से इसमें चार ग्रहों की स्थिति भिन्न देखी जा रही है।

स्पष्ट सूर्य ०/१६/०७/५० है और नवम भाव की दोनों संधि क्रमशः ०/८/५३/१७ व १/७/१४/३९, अर्थात सूर्य नवम भाव में स्थित है। इसी प्रकार चंद्र स्पष्ट : १/२०/२१/१५ है जो दशम भाव में पड़ता है। इसी प्रकार से सभी ग्रहों की स्थिति देखने पर ज्ञात होता है कि शुक्र-शनि-राहु व केतु का चलित कुंडली में भाव परिवर्तित हो जाता है।

निष्कर्ष : ज्योतिष शास्त्र में सूक्ष्म विचार करने के लिये भिन्न-भिन्न आयामों के लिये भिन्न – भिन्न वर्ग बनाकर विचार करने का भी नियम मिलता है और उन वर्गों की कुल संख्या षोडश होती है और यदि सभी वर्ग बनाये जायें तो उसे षोडशवर्गी जन्मपत्रिका कहा जाता है। षोडश वर्गों में भी विशेष महत्वपूर्ण छह होते हैं और यदि छह वर्ग बनाया जाये तो उसे षड्वर्गी जन्मपत्रिका कहा जाता है। यदि षड्वर्गी जन्मपत्रिका न बनानी हो तो जन्मांग चक्र के साथ-साथ नवांश चक्र बनाया जाता है। यहां षड्वर्गी जन्मपत्रिका निर्माण करने के लिये सभी वर्गों की सारणियां दी गयी है।

ज्योतिष गणित सूत्र

  • दंड/पल = घंटा/मिनट × 2.5 अथवा घंटा/मिनट + घंटा/मिनट + तदर्द्ध
  • घंटा/मिनट = दण्ड/पल ÷ 2.5 अथवा (दण्ड/पल × 2) ÷ 5
  • इष्टकाल = (जन्म समय – सूर्योदय) × 2.5

विद्वद्जनों से आग्रह है कि आलेख में यदि किसी भी प्रकार की त्रुटि मिले तो हमें टिप्पणी/ईमेल करके अवश्य अवगत करने की कृपा करें।

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