यदि आप ज्योतिष सीखना चाहते तो यहां उपलब्ध की गयी सामग्री आपके लिये सहायक सिद्ध हो सकती है। तथापि “गुरु बिनु होई न ज्ञान” के सूत्र की अनदेखी करके ज्योतिषी बनना संभव नहीं है। तथापि अध्ययन सामग्री की अपेक्षा तो होती ही है। यहां ज्योतिष सीखने के लिये अध्ययन सामग्री उपलब्ध की गयी है और इसे (ज्योतिष सीखें – भाग 1) प्रथम भाग समझना चाहिये।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हिन्दी में ज्योतिष सीखें – भाग 1
“गुरु बिनु होई न ज्ञान” के सूत्र की अनदेखी करके ज्योतिषी बनना संभव नहीं है। जैसे सभी विषयों की संपूर्ण सामग्री पुस्तकों में उपलब्ध होती है और किसी भी विषय के सभी पुस्तकों का अध्ययन मात्र करने से उसका ज्ञाता नहीं हो सकते यथा चिकित्सा शास्त्र को ही लेते हैं तो चिकित्सा शास्त्र की सभी पुस्तकों का अध्ययन मात्र करके कोई चिकित्सक नहीं बन सकता, जैसे विज्ञान की सभी पुस्तकों का अध्ययन मात्र कर लेने से कोई वैज्ञानिक नहीं बन सकता, उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र की पुस्तकों का अध्ययन मात्र करके कोई ज्योतिषी नहीं बन सकता।
ज्योतिष शास्त्र की महत्ता व रचना
ज्योतिष सीखने का तात्पर्य प्रायः जन्मकुंडली निर्माण करना और उसका विश्लेषण करना मात्र समझा जाता है जो कि असत्य है अथवा एकांगी है। ज्योतिष के तीन स्कंध कहे गये हैं : सिद्धांत, संहिता और होरा। नारद स्मृति में कहा गया है :
सिद्धांत संहिता होरारूपं स्कन्धत्रयात्मकं। वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमकल्मषम् ॥
विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा ॥
वेद के षडंगों में से ज्योतिष को उसका नेत्र कहा गया है “वेदस्य निर्मलं चक्षुः” अर्थात यह वेदाङ्ग है और इसकी रचना ब्रह्मा जी के द्वारा की गयी थी। इसे कालज्ञान भी कहा जाता है और लगध के वेदाङ्ग ज्योतिष में “कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि” कहा गया है अर्थात ज्योतिष शास्त्र के बिना काल (समय) का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता और काल का ज्ञान प्राप्त न हो तो श्रौत-स्मार्त कर्म सिद्ध नहीं हो सकते।
इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र की महत्ता व उपयोगिता तो है ही किन्तु यदि कोई ऐसा कहे कि 5000 वर्ष पूर्व ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति हुयी अथवा 10000 वर्ष पूर्व; तो वह स्वयं अज्ञानी है और जनमानस को भ्रमित करता है। “तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा” कालज्ञान के बिना श्रौत-स्मार्त कर्म तक कुछ नहीं हो सकते इसलिये जगद्धितार्थ ब्रह्मा ने प्राचीन काल (सृष्टि के आरंभ) में ही ज्योतिष शास्त्र की रचना किया था। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र भी ब्रह्मा द्वारा रचित है अर्थात अपौरुषेय है।
मानवीयकृति के लिये उसके निर्माण काल को समझने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है और अनुमान किया जा सकता है। दैवीय कृति के काल का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार पराशर होराशास्त्र, बृहज्जातक, वेदाङ्ग ज्योतिष आदि मानवीय कृति के काल निर्धारण का प्रयास तो किया जा सकता है किन्तु ज्योतिष शास्त्र के काल का अनुमान भी नहीं किया जा सकता है। वर्त्तमान काल में वेदाङ्ग ज्योतिष आदि ग्रंथों के माध्यम से ही ज्योतिष शास्त्र का काल निर्धारण करने का प्रयास किया जाता है जो अज्ञानता है।
ज्ञानचक्षुओं पर आधुनिकता और वैज्ञानिकता रूपी आवरण स्थापित करने से भ्रम ही उत्पन्न होता है और वेद-वेदाङ्ग के विषय में जो भारत इसका ज्ञाता है उसी भारत को भ्रमित करने का प्रयास किया जाता है। आधुनिकता-वैज्ञानिकता भौतिक संसार का विषय है और इसका प्रयोग भौतिक/सांसारिक अध्ययन के लिये उपर्युक्त है। आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने में ये बाधक ही होता है क्योंकि ज्ञानचक्षुओं पर आवरण के समान स्थित हो जाता है अर्थात अंधा बना देता है।
ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता
“विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति”, “कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि” आदि वचनों से ज्ञात होता है कि श्रौत (वैदिक) व स्मार्त (स्मृति प्रतिपादित) विभिन्न कर्मों के लिये शुभाशुभ काल का ज्ञान प्राप्त करना ज्योतिष शास्त्र की मुख्य उपयोगिता है। व्यक्ति के जीवन में ग्रह-नक्षत्रादि का प्रभाव भी होरा के अंतर्गत आता है एवं उसमें भी मुख्य रूप से जीवन के शुभाशुभ काल का ही ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
मानव जीवन का उद्देश्य आत्मकल्याण है न कि शरीर कल्याण। होरा शास्त्र शरीर-संसार का भी ज्ञान प्रदान करता है किन्तु यह ज्योतिष शास्त्र की मुख्य उपयोगिता नहीं है। इसका भी लक्ष्य वास्तव में आत्मकल्याण ही होता है। “शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं” धर्म साधने (करने) का माध्यम शरीर ही है अतः शरीर हेतु भी शुभाशुभ काल का ज्ञान प्राप्त होना आवश्यक है तदनुसार आत्मकल्याण पथ पर यात्रा संभव हो सके, उसमें व्यवधान उत्पन्न न हो।
आधुनिकता-वैज्ञानिकता शरीर से आगे का ज्ञान नहीं दे पाता है अथवा नहीं दे सकता। इस कारण आध्यात्मिक जीवन में आधुनिक सोच, वैज्ञानिक सोच आदि अवधारणा का कोई औचित्य ही सिद्ध नहीं होता है परन्तु समस्या यह है कि जो लोग आध्यात्मिक गुरु बनते हैं वो भी अपने तथ्यों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर सिद्ध करने का प्रयास करने लगते हैं और स्वयं भी पथभ्रष्ट हो जाते हैं (आत्मकल्याण पथ से) एवं संसार में, शरीर में फंसकर रह जाते हैं। इसका बहुत ही उपर्युक्त उदाहरण है बड़े-बड़े कथावाचकों, ज्योतिषियों का मेकअप करना, सुंदर दिखने का प्रयास करना आदि।
विधात्रा लिखिता याऽसौ ललाटेऽक्षरमालिका । दैवज्ञस्तां पठेद्व्यक्तं होरानिर्मलचक्षुषा ॥ – सारावली
सारावली में कहा गया है कि विधाता द्वारा ललाट में जो अक्षरमालिका (शुभाशुभ) लिखा जाता है उसे होररूपी निर्मल नेत्रों द्वारा पढ़कर दैवज्ञ व्यक्त (वर्णन/विश्लेषण) करता है। दैवज्ञ जिस नेत्र से उसका अवलोकन करता है उसे होरा शास्त्र (जातक) कहते हैं। सारावली होरा (जातक) से संबंधित है अतः यहां होरामात्र की ही चर्चा की गयी है।
लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः । स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्त्तश्चाऽमूर्त्त उच्यते ॥
ज्योतिष शास्त्र से कालज्ञान होता है, काल का मूर्तस्वरूप प्रहर-मुहूर्त-दण्ड-पल आदि है, एवं एक अमूर्त स्वरूप भी है जो ब्रह्म है और उस काल का ज्ञान प्राप्त होने का तात्पर्य है ब्रह्मज्ञान प्राप्त होना अर्थात मोक्ष की प्राप्ति। अब ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता को देखें यहां मोक्ष प्राप्ति तक आ गया। किन्तु जो लोग धन प्राप्ति, कुंडली बनाना, जीवन का शुभाशुभ ज्ञात करना आदि उपयोगिता समझते-समझाते हैं वो कितने अज्ञानी हैं सोचा जा सकता है।
एक ज्योतिषी मूर्त्त काल का अध्ययन करते-करते अमूर्त्त काल (ब्रह्म) का ज्ञान भी प्राप्त करता है किन्तु यहां ज्योतिषी का तात्पर्य ज्योतिष शास्त्री लेना चाहिये जो ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करता हो, न कि एस्ट्रोलॉजर या रत्नव्यापारी। ये एस्ट्रोलॉजर, रत्नव्यापारी ज्योतिष शास्त्र (ग्रंथ) का अध्ययन नहीं करते हैं अपितु उसका तिरष्कार ही करते रहते हैं और आधुनिकता के नाम पर जो मिश्रित ज्योतिषी हिन्दी व अन्य भाषाओं में होता है उसका अध्ययन करते हैं। ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थ संस्कृत में हैं और मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उन ग्रंथों का अध्ययन-मनन करने की आवश्यकता होती है।
ज्योतिश्चक्रे तु लोकस्य सर्वस्योक्तं शुभाशुभम् । ज्योतिर्ज्ञानं तु यो वेद स याति परमां गतिम् ॥ ~ गर्ग
गर्ग का वचन है कि ज्योतिषचक्र में लोक के सभी शुभाशुभ वर्णित होते हैं, वर्णन किया जा सकता है। जो ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त करता है वह परमगति प्राप्त करता है।
अर्थार्जने सहायः पुरुषाणामापदर्णवे पोतः। यात्रासमये मन्त्री जातकमपहाय नास्त्यपरः ॥ ~ सारावली
किन्तु प्राचीन ऋषि-मुनि आत्मकल्याण की कामना रखते थे जो कालक्रम से न्यून होता रहा और कालांतर में आत्मकल्याण का स्थान सांसारिक सुख प्राप्ति लेने लगा और इसका प्रमाण सारावली में मिलता है। सारावलीकार ज्योतिष शास्त्र (होरा) के बारे में कहते हैं कि यह अर्थार्जन में सहायक है, आपत्ति के सागर में फंसे पुरुषों के लिये पोत के समान, यात्राकाल में मंत्री (सलाहकार) के समान होता है, जातक के लिये इसके समान दूसरा कोई सहायक शास्त्र नहीं होता है।
ज्योतिः कल्पो निरुक्तं च शिक्षा व्याकरणं तथा ।
छन्दोविचितिरेतानि षडङ्गानि विदुः श्रुतेः ॥
छन्दः पादौ शब्दशास्त्रं च वक्त्रं कल्पः पाणी ज्यौतिषं चक्षुषी च ।
शिक्षा घ्राणं श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं वेदस्याङ्गान्येवमाहुर्मुनीन्द्राः ॥
वेदस्य चक्षुः किल शास्त्रमेतत् प्रधानताङ्गेषुततोऽस्ययुक्ता ।
अगैर्यतोऽन्यैरपिपूर्णमूर्तिश्वक्षुर्विना कः पुरुषत्वमेति ॥
अध्येत्व्यं ब्राह्मणैरेव तस्मात् ज्योतिश्शास्त्रंपुण्यमेतद्रहस्यम् ।
एतद्बुध्वा सम्यगाप्नोति यस्मा दर्थ धर्म मोक्षमग्रयं यशश्च ॥
ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कंध
“सिद्धांत संहिता होरारूपं स्कन्धत्रयात्मकं” ~ ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कंध हैं : सिद्धांत, संहिता और होरा
ज्योतिष के स्कन्धों का विस्तृत वर्णन प्रश्नमार्ग में भी मिलता है जो इस प्रकार है :
स्कन्धत्रयात्मकं ज्योतिश्शास्त्रमेतत् षडङ्गवत् ।
गणितं संहिता होरा चेति स्कन्धत्रयं मतम् ॥
जातकगोलनिमित्तप्रश्नमुहूर्ताख्यगणितनामानि ।
अभिदधतीह षङ्गान्याचार्या ज्योतिषे महाशास्त्रे ॥
गोलो गणितं चेति द्वितयं खलु गणितसंज्ञिते स्कन्धे ।
होरासंहितयोरपि निमित्तमन्यत्त्रयं च होराख्ये ॥
जनपुष्टिक्षयवृष्टिद्विरदतुरङ्गादिसकलवस्तूनाम् ।
केतूल्कादीनां वा लक्षणमुदितं हि संहितास्कन्धे ॥
प्रमाणं गणितस्कन्धः स्कन्धावन्यौ फलात्मकौ ॥
- सिद्धांत : “गोलो गणितं चेति द्वितयं खलु गणितसंज्ञिते स्कन्धे” यह ज्योतिष का गणित खण्ड है जिसमें गणितीय और वैज्ञानिक सिद्धांतों का अध्ययन, भगोल-भूगोल जैसे पृथ्वी का गोलत्व, परिधि-व्यास का संबंध, काल की इकाइयां, गुरुत्वाकर्षण, गति एवं ग्रह-नक्षत्रादि की स्थिति आदि विषय आते हैं।
- संहिता : “जनपुष्टिक्षयवृष्टिद्विरदतुरङ्गादिसकलवस्तूनाम् । केतूल्कादीनां वा लक्षणमुदितं हि संहितास्कन्धे” यह ज्योतिष का फलादेश संबंधी खण्ड है किन्तु होरा से भिन्न है, इसमें परिणामों का अध्ययन जैसे काल का शुभत्व-अशुभत्व (सुभिक्ष और दुर्भिक्ष) का अध्ययन किया जाता है।
- होरा : “होरासंहितयोरपि निमित्तमन्यत्त्रयं च होराख्ये” यह ज्योतिष का फलादेश संबंधी खण्ड है जिसमें किसी व्यक्ति की जन्मकालिक कुंडली के अनुसार परिणामों के तरीकों का अध्ययन, जैसे जन्म से लेकर मृत्यु तक के जीवन में ग्रहों और नक्षत्रों के प्रभाव से शुभाशुभ फलों का अध्ययन किया जाता है।
एक ज्योतिषी हेतु तीनों स्कन्धों का अध्ययन आवश्यक होता है किन्तु किसी एक सकन्ध का ज्ञाता भी ज्योतिषी कहलाता है। तथापि धरातल पर जिन ज्योतिषियों की आवश्यकता होती है उनके पास होरा का विशेष ज्ञान तो आवश्यक होता ही है इसके साथ ही अन्य दो स्कन्धों सिद्धांत और संहिता का भी आंशिक ज्ञान अपेक्षित होता है।
इस प्रकार एक ब्राह्मण को ज्योतिष का अध्ययन करते समय होरा (जातक) मात्र का अध्ययन करना उद्देश्य नहीं रखना चाहिये अपितु कार्यक्षेत्र में संहिता और गणित के ज्ञान की भी सदैव आवश्यकता होती है इस कारण होरा के साथ-साथ आवश्यकतानुसार ही सही गणित और संहिता का अध्ययन भी अवश्य ही करना चाहिये।
शास्त्रेस्मिन् ब्राह्मणस्यैवाधिकारः, वेदाङ्गत्वात् : ज्योतिष वेदाङ्ग है अस्तु अध्ययन तो अन्य वर्ण भी कर सकते हैं किन्तु अध्यापन व उपदेश में ब्राह्मण का ही अधिकार होता है। अब यहां वर्त्तमान युग के अनुसार विकट प्रश्न समानता के सिद्धांत का उपस्थित होता है, सबके अधिकार की बात आती है। तो वहां यह भी स्मरण करना होगा कि ज्योतिष शास्त्र किसी भी देश के संविधान का विषय नहीं है और न ही किसी भी देश के संविधान से नियंत्रित होता है।
संविधान कानून, विज्ञान, भूगोल, राजनीति, इतिहास, भाषा आदि विभिन्न विषयों की शिक्षा का समान अधिकार प्रदान करता है। वेद-वेदाङ्ग के अध्ययन-अध्यापन का अधिकार शास्त्र से प्राप्त होता है संविधान से नहीं। संविधान उसे बाधित करने का प्रयास कर सकता है और जब कभी सत्ता भी आसुरी तत्वों के अधीन होती है तो वो इसे बाधित करने का प्रयास करती है। ऐसी ढेरों कथायें भी हैं और इतिहास भी है जब बाधित करने का प्रयास किया गया था; ज्वलंत उदाहरण नालंदा विश्वविद्यालय का दहन करना है।
ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास की स्वतंत्रा संविधान दे सकता है किन्तु ज्ञान में अधिकार नहीं दे सकता है। ज्ञान तो गुरु की कृपा से ही प्राप्त होता है “बिन गुरु होइ न ज्ञान”, ज्ञान में अधिकार गुरु ही प्रदान करते हैं और गुरु कृपा से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। यदि कोई सांविधानिक अधिकार सिद्धि पूर्वक पुस्तक का अध्ययन कर भी ले तो इसका यह तात्पर्य नहीं होता है कि उसे ज्ञान प्राप्ति भी हो गयी है। पुनः गुरु दी विद्या प्रयोग के लिये जो नियम-विधि निर्धारित करता है उसका पालन करना भी अनिवार्य होता है। और पालना होगी अथवा नहीं यह सुनिश्चित करके ही गुरु ज्ञान प्रदान करते हैं।
इस संबंध में एक और प्रकरण भी है हम वेद-वेदाङ्ग का ज्ञान अपनी आस्था होने के कारण प्राप्त करते हैं। यदि शास्त्रों में अनास्था हो अर्थात शास्त्र में जो निषेधात्मक वचन है उसे अस्वीकार करें तो ज्ञान प्राप्ति की आवश्यकता ही समाप्त हो जाती है। ये वेद-पुराण-शास्त्रों में आस्था है तो ही ज्ञानप्राप्ति, यज्ञ, व्रत करने की आवश्यकता सिद्ध होती है। यदि वेद-वेदाङ्ग-शास्त्रों में आस्था-विश्वास न हो तो ज्ञानप्राप्ति, यज्ञ व्रतादि की भी आवश्यकता स्वतः समाप्त हो जाती है। अनास्था-अविश्वास होने पर आवश्यकता का ही प्रयोजन सिद्ध नहीं होता फिर अधिकार-अनधिकार की चर्चा शेष रहती कहां है ?
जैसे हवन में भी अधिकार की चर्चा की जाती है तो हवन में अधिकार-अनधिकार को जानने-समझने से पूर्व आस्था-विश्वास की अनिवार्यता होती है। जब आस्था-विश्वास हो तभी अधिकार-अनधिकार को जाना-समझा जा सकता है, एवं जिसे आस्था-विश्वास होता है वह तदनुसार आचरण भी करता है। आस्था-विश्वास से रहित होने पर एक ओर प्रदर्शन भी किया जाता है और दूसरी ओर शास्त्राज्ञा की अवहेलना, शास्त्रोलन्घन भी करते रहते हैं।
ज्योतिषी बनना भी इसी प्रकार का प्रकरण है। ज्योतिषी बनना है अर्थात ज्योतिष का प्रदर्शन तो करना है, ज्योतिष के नाम पर व्यापार तो करना है किन्तु शास्त्रों में ही यदि ज्योतिष को वेदांग कहा गया है एवं वेदाङ्ग होने से “शास्त्रेस्मिन् ब्राह्मणस्यैवाधिकारः, वेदाङ्गत्वात्” (ब्राह्मणाधिकार) कहा गया है तो इसे अस्वीकार करते हैं अधिकार, समानता आदि का कुतर्क करने लगते हैं। ये तो उस शास्त्र में अनास्था सिद्ध होती है, अविश्वास सिद्ध होता है।
ज्योतिष की पुस्तकें : ज्योतिष सीखने की महत्वपूर्ण पुस्तकें
ज्योतिषी बनना भी इसी प्रकार का प्रकरण है। ज्योतिषी बनना है अर्थात ज्योतिष का प्रदर्शन तो करना है, ज्योतिष के नाम पर व्यापार तो करना है किन्तु शास्त्रों में ही यदि ज्योतिष को वेदांग कहा गया है एवं वेदाङ्ग होने से “शास्त्रेस्मिन् ब्राह्मणस्यैवाधिकारः, वेदाङ्गत्वात्” (ब्राह्मणाधिकार) कहा गया है तो इसे अस्वीकार करते हैं अधिकार, समानता आदि का कुतर्क करने लगते हैं। ये तो उस शास्त्र में अनास्था सिद्ध होती है, अविश्वास सिद्ध होता है।
अब जो ज्योतिष सीखना चाहते हैं इसमें एक तथ्य तो स्पष्ट है कि सीखना और ज्ञान प्राप्त करने में अंतर है सीखने के लिये पुस्तकों का अध्ययन किया जाता है, आलेख-विडियो आदि विभिन्न माध्यमों से उपलब्ध सामग्रियों का सहयोग भी लिया जाता है। जैसे यह आलेख भी एक प्रकार की सामग्री है एवं आगे जो आलेख प्रकाशित किये जायेंगे वो भी सामग्री होगी। किन्तु विभिन्न सामग्रियों का अवलोकन-अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। सामग्रियों से ज्ञान भले ही प्राप्त न हो किन्तु सहयोग प्राप्त हो सकता है।
अब हम ज्योतिष सीखने में आवश्यक कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों को भी जानेंगे जो ज्योतिष ज्ञान प्राप्ति में सहायक सिद्ध हो सकती है। वर्त्तमान युग में ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने का तात्पर्य न तो समग्र (त्रिस्कन्ध) ज्योतिष है और न ही मात्र होरा (जातक) समझना चाहिये।
किन्तु ज्योतिष सीखने का मुख्य तात्पर्य होरा (जातक) अवश्य लगाया जाता है। इसके साथ ही सिद्धांत व संहिता का भी सामान्य ज्ञान अनिवार्य होता है। यहां तदनुसार ही उपयोगी पुस्तकों की चर्चा की जा रही है।
दशाध्याय्यां विशेषेण श्रमो नैव कृतो यदि ।
दुष्करः फलनिर्देशस्तद्विदां च तथा वचः ॥
अदृष्ट्वा यो दशाध्यायीं फलमादेष्टुमिच्छति ।
इच्छत्येव समुद्रस्य तरणं स प्लवं विना ॥
प्रश्नमार्ग नामक पुस्तक में बृहज्जातकं को ज्योतिष ज्ञान के लिये सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक बताया गया है। किन्तु यहां पर यह नहीं समझना चाहिये कि बृहज्जातक जब नहीं था तब ज्योतिष शास्त्र नहीं था। किन्तु होराशास्त्र के उपलब्ध ग्रंथों की सभी महत्वपूर्ण बातों को सारांश में वराहमिहिर ने बृहज्जातकं में अंकित कर दिया और जब इस पुस्तक की रचना हुयी तो यह जातक हेतु एक तरह से अनिवार्य पुस्तक बन गयी। इसके आगे सारावली को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है किन्तु सारावली के रचयिता कल्याणवर्मा ने भी वराहमिहिर के बृहज्जातकं की सराहना किया है।
इस प्रकार यदि आधुनिक ग्रंथों की बात करें तो वराहमिहिर रचित बृहज्जातक सर्वाधिक उपयोगी है तदनंतर सारावली, फलदीपिका, जातकाभरणं, भावमञ्जरी जैसे पुस्तक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। पुनः जातक से आगे बढ़ने पर बृहज्ज्योतिषसार, मुहूर्त चिंतामणि, व्यावहारिक ज्योतिष तत्वम्, लग्नचंद्रिका, पूर्व कालामृत, उत्तर कालामृत, प्रश्नमार्ग (दो खंडों में) आदि महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।
इससे आगे बढ़ने पर हिन्दी में समझने के लिये भी अनेकों पुस्तकें हैं किन्तु हिन्दी में ज्योतिष की समझ बढ़ाने वाली पुस्तकों में ज्योतिष रत्नाकर विशेष महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसी प्रकार यदि हिन्दी में जन्मकुंडली निर्माण विधि की गणितीय क्रिया सीखने हेतु विशेष पुस्तक को ढूंढते हैं तो सबसे ऊपर जिस पुस्तक का नाम आता है तो वो है “जन्मपत्री रचना में त्रुटियां क्यों” इसके अतिरिक्त भी अनेकों पुस्तकें हैं जो महत्वपूर्ण हैं।
अब यदि प्राचीन ग्रंथों की बात करें तो पाराशर होरा शास्त्र, भृगु संहिता, गर्ग संहिता आदि ग्रन्थ मुख्य रूप से आते हैं किन्तु ऐसा नहीं है कि प्राचीन ग्रंथों में मात्र इन्हीं ग्रंथों के नाम कहे जा सकते हैं अपितु विभिन्न पुराणों में भी ज्योतिषीय चर्चा होती है।
निष्कर्ष : ज्योतिष विद्या वेदाङ्ग विद्या है और ज्योतिष सीखना एवं ज्योतिर्विद अथवा दैवज्ञ बनना दो भिन्न विषय है। ज्योतिष के तीन स्कंध कहे गये हैं सिद्धांत, संहिता और होरा। ज्योतिष सीखने का मुख्य तात्पर्य होरा के अंतर्गत कुंडली निर्माण करना और फलादेश करना समझा जाता है तथापि सामान्य ज्योतिषी बनने के लिये भी सिद्धांत व संहिता का भी सामान्य ज्ञान अनिवार्य होता है। इन सभी चर्चाओं के साथ इस आलेख में ज्योतिष सीखने में विशेष उपयोगी अर्थात महत्वपूर्ण पुस्तकों की भी चर्चा की गयी है किन्तु ये विज्ञापन नहीं है।
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