ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हिन्दी में ज्योतिष सीखें – learn astrology in hindi

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हिन्दी में ज्योतिष सीखें - learn astrology in hindi

ज्योतिष मूल रूप से भारतीय विद्या है और इसके सभी सूत्र-नियम, फलादेश विधान भारतीय ज्योतिष शास्त्र में मिलते हैं जो संस्कृत में होते हैं। किन्तु ये ज्योतिष शास्त्र की विशेषता है कि इसे सम्पूर्ण विश्व ने स्वीकारा, अपने अनुकूल परिवर्तन आदि भी किया तथापि मूल भारत में ही है और यदि ज्योतिष को वास्तव में सीखने की चाह होने पर भारतीय ज्योतिष शास्त्रों का अध्ययन करना अनिवार्य हो जाता है। यहां हम हिन्दी में ज्योतिष सीखने (learn astrology in hindi) से संबंधित चर्चा करेंगे और इसे क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ाने का भी प्रयास करेंगे।

वर्त्तमान युग में संस्कृत भाषा को न सीखना गंभीर होता जा रहा है किन्तु ज्योतिष एक ऐसा विषय है जिसमें सम्पूर्ण विश्व की रूचि दिखती है और यदि हिन्दी में भी ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ज्योतिष सीखने का प्रयास किया जाये तो संस्कृत भाषा का भी ज्ञानवर्द्धन हो सकता है।

एक अनिवार्यता जो है वो ऑनलाइन चर्चा करने वाले भूल जाते हैं, शास्त्रोक्त चर्चा में शास्त्र के प्रमाणों की भी आवश्यकता होती है और प्रमाणों को निगल जाते हैं। जब भी शास्त्रोक्त चर्चा हो तो उसके प्रमाणों को गंभीरता से समझने का प्रयास करना चाहिये।

शास्त्र वचनों की एक विशेष विशेषता होती है कि इनके अनेकानेक अर्थ होते हैं और जो अर्थ बताने वाला बता रहा होता है अथवा व्याख्या कर रहा होता है उससे भी अधिक अर्थ जाना-समझा जा सकता है, ज्ञात हो सकता है। इसलिये यहां यथासंभव शास्त्रोक्त प्रमाणों को स्थान देते हुये ज्योतिष सीखने से संबंधित सहायक सामग्री प्रस्तुत करने का प्रयास किया जायेगा।

ज्योतिष सीखने के लिये जानने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य

ज्योतिष सीखने से पूर्व एक विशेष महत्वपूर्ण तथ्य को समझना अत्यावश्यक है और वो तथ्य है ज्योतिष सीखना और दैवज्ञ होना दोनों भिन्न विषय है। ज्योतिष सीखने की बात जहां तक है वो कोई भी अध्ययन कर सकता है, सीख सकता है। किन्तु यदि दैवज्ञ की बात करें तो शास्त्रोक्त प्रमाणों के आधार पर ही समझना होगा। वर्त्तमान में ज्योतिष व धर्म-अध्यात्म की चर्चा करने में जो उछल-कूद करते रहते हैं वो शास्त्र के अध्ययन से रहित होते हैं।

भविष्यपुराण के उत्तरपर्व अध्याय ११० में एक वचन इस प्रकार मिलता है जो शातातप स्मृति में भी यथावत देखा जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि ब्राह्मण जो बोलते हैं देवता उसी का अनुमोदन करते हैं। स्वयं ब्राह्मण सर्वदेवस्वरूप होते हैं और उनका वचन अन्यथा नहीं होता :

ब्राह्मणा यत्प्रभाषंते ह्यनुमोदति देवताः। सर्वदेवमया विप्रा नैतद्वचनमन्यथा ॥

ब्रह्महत्यादि पाप नष्ट होते हैं। यह प्रायश्चित्त विधान से भी संबंधित है जिसमें पापों का प्रायश्चित्त ब्राह्मण की आज्ञा से करने का विधान है, एवं उसके संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ब्राह्मण का वचन (ब्राह्मण की आज्ञा) है और पापों का शमन ब्राह्मण की आज्ञा पालन से होता है, अर्थात प्रायश्चित्त का रहस्य ब्राह्मण की आज्ञा का पालन करने में छुपा होता है क्योंकि एक ही पाप के शमन हेतु ब्राह्मण अनेक प्रकार की आज्ञा प्रदान कर सकते हैं अर्थात व्यक्तिभेद से प्रायचित्त में भी भेद करते हैं : ब्राह्मणानां तु वचनाद्ब्रह्महत्या प्रणश्यति ॥

इस चर्चा का उद्देश्य यह है कि दैवज्ञता मात्र ब्राह्मणों को प्राप्त होती है अथवा दैवज्ञ ब्राह्मण ही हो सकते हैं। दैवज्ञ का तात्पर्य देवता को जानने वाला, दैवीय विधान का ज्ञाता, दैवीय विधान निर्धारक इत्यादि होता है। दैवीय विधान निर्धारक का तात्पर्य है कि समस्त आध्यात्मिक कर्मों की विधि-फल आदि का निर्धारण ब्राह्मण ही कर सकते हैं, क्योंकि देवता ब्राह्मण के वचन को ही मान्यता प्रदान करते हैं।

शांतिक-पौष्टिक सभी कर्मों, व्रत-प्रायश्चित्तादि की सफलता-संपूर्णता-फलसिद्धि का रहस्य ब्राह्मण के वचन में छुपा होता है। यदि ब्राह्मण वचन से रहित होकर किया गया हो तो वह अकृत-निष्फल होता है। यदि ब्राह्मण वचन से रहित होकर किया गया हो तो वह अकृत-निष्फल होता है।

वर्त्तमान में कोई भी अध्ययन मात्र करके ज्योतिषी, कर्मकांडी आदि बनने का प्रयास करता है और शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करते हुये स्वयं तो नरक का भागी होता ही है औरों को भी नरक का भागी बनाता है। ब्राह्मणेत्तर को मात्र स्वयं के आत्मकल्याण संबंधि प्रयास करने का अधिकार होता है और उसके लिये भी ब्राह्मण का वचन भी अनिवार्य होता है। ब्राह्मणेत्तर के वचन का अनुमोदन देवता नहीं करते हैं, आज्ञा देने का अधिकार नहीं होता है।

इस प्रकार ज्योतिष का अध्ययन करने के पश्चात् भी ब्राह्मणेत्तरों को मात्र विश्लेषण करने का ही अधिकार प्राप्त होता है। निदान अर्थात ग्रह-नक्षत्रशांति विधान की आज्ञा देने का अधिकार ही नहीं होता है और यदि करते हैं तो वह अनधिकृत रूप से किया हुआ होता है जो पतन का कारक होता है। सभी वर्णों को आज्ञा देने का अधिकार ब्राह्मण को ही होता है, देवता ब्राह्मण के वचन का ही अनुमोदन करते हैं, मान्यता प्रदान करते हैं अस्तु दैवज्ञ ब्राह्मण ही हो सकता है।

ज्योतिष और रत्न व्यापार

वर्त्तमान में ज्योतिष और रत्न व्यापार एक दूसरे से ऐसे जुड़ गये हैं कि कोई भी ज्योतिषी बन सकता है और जो रत्न व्यापार को जितना बढ़ावा दे वह उतना ही बड़ा ज्योतिषी बन सकता है, प्रसिद्ध ज्योतिषी हो सकता है। एक बात अवश्य है कि रत्न स्वयं का प्रभाव तो धारक को प्रदान करता ही है और धारणीय रत्न का अनुभव, ज्ञान ये लोग अवश्य ही प्राप्त कर लेते हैं।

किन्तु प्रश्न यह है कि रत्न क्या करता है ?

  • क्या ग्रहों के अशुभत्व का नाश करता है ?
  • क्या ग्रहशांति करता है ?
  • क्या ग्रहों के शुभत्व को बढ़ाता है ?

वर्त्तमान में ज्योतिष और रत्न व्यापार एक दूसरे से ऐसे जुड़ गये हैं कि कोई भी ज्योतिषी बन सकता है और जो रत्न व्यापार को जितना बढ़ावा दे वह उतना ही बड़ा ज्योतिषी बन सकता है, प्रसिद्ध ज्योतिषी हो सकता है। एक बात अवश्य है कि रत्न स्वयं का प्रभाव तो धारक को प्रदान करता ही है और धारणीय रत्न का अनुभव, ज्ञान ये लोग अवश्य ही प्राप्त कर लेते हैं। रत्न इनमें से कुछ करने में सक्षम नहीं है।

रत्न वास्तव में ग्रहों की रश्मियों का प्रभाव बढ़ाता है अर्थात ग्रहों के फल को भी बढ़ाता है चाहे वह शुभफल हो अथवा अशुभफल हो। ग्रहों के अशुभफल का निवारण और शुभफल की प्राप्ति ग्रहशांति से होती है, किन्तु आप सभी रत्नव्यापारियों के पास घूम लीजिये कोई भी ग्रहशांति के बारे में नहीं बतायेगा। वैसे ये अच्छा ही है कि इनमें जो ब्राह्मणेत्तर हैं उन्हें ग्रहशांति की आज्ञा देने का अधिकार ही नहीं होता और इस प्रकार की आज्ञा न देने से शास्त्रोल्लंघनरूपी दोष से सुरक्षित रहते हैं।

इस प्रकार से जो ग्रहशांति का उचित उपाय नहीं बता सकता, आज्ञा प्रदान नहीं कर सकता मात्र रत्नधारण करा सकता है, रत्न-व्यापार करता है उसे ज्योतिषी कहने की अपेक्षा रत्नव्यापारी कहा जाय हो अधिक उपर्युक्त होगा। रत्न-व्यापारी को ज्योतिषी कहने से ज्योतिष शास्त्र का भी अपमान होता है।

दैवज्ञ

प्राचीन काल में दैवज्ञ त्रिकालज्ञ होते थे और ध्यानमात्र करके सब-कुछ जान लेते थे। किन्तु ऐसा नहीं कि जन्मांग चक्र आदि के ज्ञान से रहित थे, ज्योतिष शास्त्र भी था, पंचाग भी थे। अन्यथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ हेतु मुहूर्त कैसे बना, भगवान राम के जन्मकाल में कई उच्च थे यह कैसे ज्ञात हुआ ? इत्यादि अनेकों प्रश्न हैं जिसका उत्तर नहीं मिलेगा।

महर्षि बाल्मीकि ने रामायण लिखा था किन्तु उसका ज्ञान जंगल में रहते हुये ध्यान करके ही प्राप्त किया था एवं इसकी सिद्धि का कारण वहां भी एक अन्य दैवज्ञ की आज्ञा में सन्निहित है और वो दूसरे दैवज्ञ नारद थे।

जो ज्योतिष को कुछ हजार वर्ष पूर्व का बताते हैं वो ये कैसे सिद्ध करेंगे कि प्राचीन काल में बिना ज्योतिष के दिन का निर्धारण कैसे होता था। वारप्रवृत्ति भी तो ज्योतिष से ही होता है और यह भी प्राचीन काल से ही होता रहा है न कि 1000 वर्ष पूर्व, 2000 वर्ष पूर्व, 3000 वर्ष पूर्व, 5000 वर्ष पूर्व।

जो भेद है वो यह कि वर्त्तमान में पञ्चाङ्ग, कुंडली आदि मोबाईल ऐप में उपलब्ध हो गया है और कोई भी देख सकता है। किन्तु जब मोबाईल नहीं था तब कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर के माध्यम से कुछ लोग देख पाते थे। उसी प्रकार 25 – 30 वर्ष पूर्व पंचांग प्रकाशित होता था और उसी माध्यम से ज्ञान प्राप्त होता था किन्तु सीमित लोगों के पास ही पंचांग होते थे, उससे भी सौ वर्ष पूर्व जाने पर जब टंकण नहीं होता था तब हस्तलिखित पंचांग होते थे और वो बहुत ही कम लोगों के पास होता था।

इसी प्रकार यदि हम प्राचीन काल में जायें तो हस्तलिखित भी नहीं होता था ऐसा नहीं कहा जा सकता किन्तु उस काल में कंठस्थ विद्या का ही महत्व था। वेद-वेदाङ्ग जो भी अध्ययन किया गया हो सभी स्मृति में वास करती थी और ध्यान लगाकर ही त्रिकाल ज्ञान हो जाता था। वर्त्तमान में हम भले ही मोबाईल ऐप से पंचांग-कुंडली क्षणभर में प्राप्त कर लें किन्तु वो विधा तो विलुप्त सी हो गयी है। और इसे भले ही विकास कहा जा रहा हो किन्तु यह विकास कैसे है जब स्मृति का विषय मोबाईल में निवास करता हो।

इसके साथ है उस काल के ब्राह्मण स्वकर्मनिरत भी होते थे जो दैवज्ञ होने की प्रथम शर्त है। जातिमात्र ब्राह्मण के वचन का अनुमोदन भी देवता कर सकते हैं ब्राह्मणोचित कर्म व विद्वान ब्राह्मण एवं जातिमात्र ब्राह्मण के वचन अनुमोदन में अर्थात वचन के प्रभाव में अंतर तो स्वाभाविक ही है। यदि विद्वान व स्वकर्मयुक्त ब्राह्मण के वचन में शतप्रतिशत प्रभाव होता है तो जातिमात्र के ब्राह्मण वचन में अधिकतम तृतीयांश प्रभाव ही संभव है। क्योंकि ब्राह्मणत्व के भी तीन कारक हैं ज्ञान, तप और ब्राह्मण योनि में जन्म। इनमें से योनि तो अनिवार्य है किन्तु योनिमात्र कारक से संपन्न होने पर जातिमात्र संज्ञा होती है।

इस प्रकार दैवज्ञ होने के लिये ज्ञान और तप दोनों की भी आवश्यकता होती है और इन दोनों से रहित होने पर जातिमात्र ही संज्ञा होती है वो दैवज्ञ नहीं हो सकता। अर्थात जिसने ब्राह्मण कुल में जन्म प्राप्त किया हो ज्ञानार्जन किया हो, तप किया हो वही दैवज्ञ कहला सकता है। तप से रहित होने पर भी यदि दो कारण हो ब्राह्मणकुल में जन्म एवं ज्ञान तो भी तृतीयांश प्रभाव न्यून ही रहेगा।

किन्तु यहां ज्ञान भी एक अनिवार्य शर्त है “गुरु बिनु होइ न ज्ञान”, वर्त्तमान युग में गुरु से रहित ज्ञानप्राप्ति की परंपरा बनाने का प्रयास किया जा रहा है जो कदापि संभव नहीं है। क्योंकि यही शास्वत सिद्धांत है और शास्त्र-सम्मत है। बिना गुरु के प्राप्त ज्ञान जिसे पुस्तकीय ज्ञान (किताबी ज्ञान) कहा जाता है वह प्रभावी नहीं होता है, वास्तविक नहीं होता है अपितु वह ज्ञान अनर्थकारी होता है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जो रत्न-व्यापारी हैं उन्हें ज्योतिषी कहना उचित नहीं है और जो रत्नव्यापार करना चाहते हैं वो रत्नव्यापारी ही बनें स्वयं को ज्योतिषी घोषित न करें। अब रत्नव्यापारी कैसे सिद्ध होते हैं यह समझना भी आवश्यक है :

  • यदि आप स्वयं रत्नोपरत्न क्रय-विक्रय करते हैं तो निश्चित रूप से आप रत्नव्यापारी हैं।
  • यदि आप ज्योतिषीय कार्य करते हैं किन्तु रत्नमात्र का ही उपचार बताते हैं अथवा एक चौथाई उपचारों में भी रत्न का ही निर्देश करते हैं तो रत्न व्यापारी हैं।
  • यदि आप रत्नव्यापारी से डील करके (संबंध रखते हुये) ज्योतिषीय कार्य करते हैं तो भी आप रत्नव्यापारी हैं।
  • यदि आप रत्नव्यापारी से कमीशन की डील किये बिना भी यथाप्राप्त में संतोष करते हुये प्राप्त करते हैं, रत्नक्रय हेतु विशेष रत्नालय या रत्नव्यापारी के बारे में बताते हैं तो भी आप रत्नव्यापारी की श्रेणी में ही आते हैं।

ज्योतिष विद्या कैसे सीखें

ज्योतिष विद्या है और विद्या व्यापार का साधन नहीं होता है। विद्या वही होती है जो आत्मकल्याण एवं जनकल्याण के लिये प्रयुक्त हो। धर्नाजन हेतु प्रयोग करने पर विद्या नहीं रहती क्योंकि वह पतन का कारण बन जाती है।

इस प्रकार यदि आपकी ज्योतिष में रूचि है, ज्योतिष सीखना चाहते हैं तो आपको प्रथमतः यह निर्णय लेना चाहिये कि आपको दैवज्ञ बनना है, ज्योतिषी बनना है अथवा रत्नव्यापारी बनना है। यदि दैवज्ञ बनना चाहते हैं तो वो ब्रह्मचर्याश्रम धारण करते हुये गुरुकुल में अध्ययन किये बिना संभव नहीं है। आयु 30 वर्ष हो रही है, विवाहित हो चुके हैं अर्थात गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर चुके हैं और दैवज्ञ बनना चाहें तो संभव नहीं है। हां अपने बच्चों को यदि दैवज्ञ बनाना चाहते हैं तो उसके लिये प्रयास कर सकते हैं।

यदि आप अध्ययन करके ज्योतिषी (कुंडली विश्लेषक मात्र) बनना चाहते हैं तो आपको ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करना चाहिये। किन्तु यह स्मरण रहे कि आपका उद्देश्य धनार्जन नहीं हो, रत्नव्यापार न हो।

यदि आपका उद्देश्य धनार्जन व रत्नव्यापार करना है तो आप रत्नव्यापारी बने किन्तु ज्योतिषी बनने का प्रयास न करें क्योंकि रत्नव्यापार के उद्देश्य से ज्योतिषी बनना पतनकारक सिद्ध होगा।

धनार्जन नहीं कर सकते तो ज्योतिषी बनकर करेंगे क्या ?

अब ब्राह्मणेत्तर ज्योतिषियों का एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह हो सकता है कि ब्राह्मण तो सभी परामर्श के लिये धन लेते हैं, फिर निषेध कैसे है ?

इसका मुख्य कारण पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि वर्त्तमान युग में प्रचार-प्रसार आदि रत्नव्यापारी का ही किया जाता है। अब यदि समाज में रत्नव्यापारी को ही ज्योतिषी के रूप में स्थापित कर दिया जाय तो क्या दिखेगा, व्यापार ही दिखेगा।

वर्त्तमान युग को अर्थयुग कहा जाता है और भारतीय विद्या के स्थान पर पाश्चात्य शिक्षा पद्धति स्थापित हो चुकी है। वर्त्तमान के ज्योतिषी ज्योतिष विद्या प्राप्त नहीं करते, शास्त्र में विश्वास की कमी होना, अर्थयुग में अर्थरूचि की प्रधानता स्थापित होना, आत्मकल्याण का ध्येय नष्ट हो जाना आदि कारण है जिससे येन-केन-प्रकारेण ज्योतिष अथवा ज्योतिष कम एस्ट्रोलॉजी अधिक कहा जाय का अध्ययन करके ज्योतिषी नहीं एस्ट्रोलॉजर बन रहे हैं।

ज्योतिषी आत्मकल्याण के पथ से च्युत नहीं होता है किन्तु एस्ट्रोलॉजर आत्मकल्याण के पथ पर गमन भी नहीं करता है। वर्त्तमान में भी जो परंपरागत रूप से ज्योतिषविद्या ग्रहण करते हैं वो धनलोलुप नहीं होते हैं ये पृथक विषय है कि उन्हें स्थापित ही नहीं होने दिया जाता है क्योंकि अर्थयुग में जो तंत्र बना है वो रत्नव्यापारी को ही स्थापित करता है।

तथापि यह शहरों की ही परम्परा है और शहरों में ही सीमित है और दिखाई शहर ही देता है। गांव को देखते ही नहीं हैं ये हमारा दृष्टिदोष है। भारतीय-संस्कृति, मर्यादा, आचरण आदि कुछ भी देखना हो तो गांव जाकर ही देखा जा सकता है शहरों में नहीं क्योंकि शहरों में पाश्चात्य संस्कृति स्थापित हो चुकी है भले ही वो थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ करते क्यों न दिखें। शहरों में भारतीय परिधान नहीं दिखता है, भारतीय मर्यादा भी नहीं मिलती है, सदाचरण भी नहीं मिलता है, शिखा-तिलक आदि का पुनः प्रचार हो रहा है ये भिन्न विषय है और पुनः प्रचार हो रहा है इसका तात्पर्य है कि छोड़ चुके थे, इसलिये पुनः अपना रहे हैं किन्तु सीमित मात्रा में ही।

गांवों में अभी भी कुंडली निर्माण, ज्योतिषीय परामर्श आदि के लिये धन की मांग नहीं की जाती है, दक्षिणा स्वरूप ही प्राप्त किया जाता है और दक्षिणा शास्त्रोक्त विधान ही है। दान-दक्षिणा ग्रहण करना और धनलोलुपता दोनों में अंतर है। ज्योतिष कार्यालय खोलकर निर्धारित-अनिर्धारित शुल्क पर कुंडली निर्माण करना, परामर्श प्रदान करना, अधिकतम रत्न का परामर्श देना (न्यूनतम एक चौथाई भी), आदि वो लक्षण हैं जो धनलोलुपता की सिद्धि करती है।

दान-दक्षिणा ग्रहण करना धनलोलुपता नहीं होती है, ब्राह्मण का प्रतिग्रह-दक्षिणा में शास्त्रसिद्ध अधिकार है अपितु दूसरे शब्दों में कहें तो ब्राह्मण का ही प्रतिग्रह-दक्षिणा ग्रहण करने में शास्त्रसिद्ध अधिकार है। ब्राह्मण से कोई परामर्श ग्रहण किये बिना उसे दान-दक्षिणा दी जा सकती है, भोजन कराने के पश्चात् भी दक्षिणा का विधान है जिसे भोजन दक्षिणा कहा जाता है, इसके साथ ही ब्राह्मण से दक्षिणारहित परामर्श आदि लेने का ही शास्त्रों में निषेध है।

इस प्रकार ब्राह्मण ज्योतिषी यदि दक्षिणा स्वरूप धनग्रहण करते हैं तो वो धनलोलुपता नहीं होती। ब्राह्मण ज्योतिष विद्या के अतिरिक्त वेद, वेदांग के भी ज्ञाता होते हैं जो आत्मकल्याण के साथ-साथ परोपकार (आध्यात्मिक) में भी सक्षम होते हैं। अब और अधिक जानकारी हमें शास्त्रोक्त प्रमाणों का अवलोकन करके प्राप्त हो सकती है।

ब्राह्मणा यत्प्रभाषन्ते ह्यनुमोदन्ति देवताः । सर्वदेवमया विप्रा नैतद्वचनमन्यथा ॥

भविष्यपुराण के उत्तरपर्व उत्तरपर्व के उक्त वचन में बताया गया है कि ब्राह्मण जो बोलते हैं देवता उसका अनुमोदन करते हैं, मान्यता देते हैं। क्योंकि ब्राह्मण स्वयं सर्वदेवमय होते हैं और उनका वचन अन्यथा नहीं जाता।

एक ज्योतिषी के पास सभी वर्ण के व्यक्ति जा सकते हैं और ब्राह्मण सभी वर्णों को आज्ञा प्रदान कर सकता है, उपदेश कर सकता है, किन्तु अन्य वर्ण आध्यात्मिक कर्मों के लिये । यथा किसी को ग्रहशांति की आवश्यकता होगी तो ग्रहशांति की आज्ञा (उपदेश) ब्राह्मण ही प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि देवता ब्राह्मण वचन का ही अनुमोदन करते हैं। ब्राह्मण वचन (आज्ञा) प्राप्त होने पर ही किया जाने वाला शांतिक-पौष्टिकादि कोई भी कर्म सार्थक होता है।

निष्कर्ष : यदि आप ज्योतिषी बनना चाहते हैं तो आपको शास्त्रों का सम्यक अध्ययन करना आवश्यक होता है। यहां ज्योतिष सीखने में सहयोग हेतु आपको शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ सामग्रियां प्राप्त होंगी किन्तु जैसे आप चिकित्सा शास्त्र की पुस्तकों का अध्ययन करके चिकित्सक नहीं बन सकते उसी प्रकार ज्योतिष की पुस्तकों का अध्ययन मात्र करके ज्योतिषी नहीं बन सकते हैं। ज्योतिषी का तात्पर्य मात्र कुंडली विश्लेषण करना नहीं होता है अपितु शांति आदि की विधि बताना भी होता है।

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