लग्नानयन : अक्षांश से पलभा, पलभा से चरखण्ड और चरखंड से स्वोदय मान कैसे बनायें – palbha charkhand swoday

लग्नानयन : अक्षांश से पलभा, पलभा से चरखण्ड और चरखंड से स्वोदय मान कैसे बनायें - palbha charkhand swoday

सरल विधि से लग्न ज्ञात करना हम पूर्व आलेखों में समझ चुके हैं जो प्रथम लग्न सारणी विधि है किन्तु सरलता के प्रति आकर्षण ने त्रुटियों का साम्राज्य स्थापित कर रखा है और ढेरों ऐसी जन्मपत्रिका भी निर्मित होती है जिसका लग्न ही अशुद्ध होता है। पंचांगों में भले ही लग्नसारणी अंकित हो किन्तु लग्नसारणी प्रयोग भी उसी को करना चाहिये जो अक्षांश, पलभा, चरखण्ड, लंकोदय, स्वोदय को जानता हो एवं इच्छित अक्षांश का प्रथम लग्नसारणी स्वयं निर्माण कर सकता हो।

इस आलेख में अक्षांश, पलभा, चरखण्ड, लंकोदय, स्वोदय (palbha charkhand swoday) की जानकारी दी गयी है जो जातक ज्योतिष में विशेष महत्वपूर्ण है एवं इसका ज्ञान न हो तो जन्मपत्रिका नहीं बनानी चाहिये अर्थात यदि जन्मपत्रिका बनानी हो तो इन विषयों का ज्ञान होना अनिवार्य है।

भिन्न-भिन्न स्थानों के भिन्न-भिन्न अक्षांश होते हैं एवं भिन्न-भिन्न अक्षांशों पर सूर्य का भिन्न-भिन्न कोण होता है जिसका आधार पलभा कहलाती है। भिन्न-भिन्न अक्षांशों पर लग्नों का उदयकाल अर्थात लग्नमान भी भिन्न-भिन्न होता है जिसे पलभा से चरखण्ड बनाकर लंकोदय के आधार पर ज्ञात किया जाता है। हमने जिस प्रथम लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करना सीखा है उसके लिये भी वही वास्तविक अधिकारी होता है जो स्वोदय बनाने में सक्षम हो और जिन अक्षांशों की अधिक जन्मपत्रिकायें बनाना हो उसके लिये स्वोदय से प्रथम लग्नसारणी का स्वयं निर्माण कर ले।

अर्थात प्रथम लग्नसारणी का उद्देश्य अज्ञानियों द्वारा भी जन्मपत्रिका निर्माण करना नहीं होता अपितु जिन स्थानों की अधिक जन्मपत्रिका बनानी हो उसके लिये सदैव स्वोदय साधन करने अथवा स्वोदय मान के आधार पर लग्नानयन की जटिल क्रिया से बचना होता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं होता कि स्वोदय साधन का ज्ञान ही न हो।

यदि आप जातक ज्योतिषी बनना चाहते हैं तो स्वोदय-साधन से सम्बंधित यह आलेख आपके लिये विशेष महत्वपूर्ण है।

क्योंकि ढेरों ऐसे जातक ज्योतिषी भी होते हैं जिन्हें अयनांश, सायन और निरयण लग्नसारणी तक का ज्ञान भी नहीं होता उसकी उपयोगिता को नहीं जानते, किन्तु जिस स्थान के लिये भी जन्मपत्रिका निर्माण करना हो पंचांग में दी गयी प्रथम लग्नसारणी से ही लग्न निकाल कर लग्न कुंडली बना देते हैं और इसका दुष्परिणाम यह होता है कि अनेकों जन्मपत्रिका में लग्न कुंडली ही अशुद्ध होती है।

जो स्वोदय साधन का ज्ञान नहीं रखता वह जन्मपत्रिका बनाने का अधिकारी नहीं हो सकता अर्थात यदि स्वोदय साधन के ज्ञान से रहित होने पर भी लग्नसारणी द्वारा लग्नानयन करके जन्मपत्रिका बनाता है तो यह अनाधिकार चेष्टा की श्रेणी में आता है। पंचांगों वाली लग्नसारणी अनधिकृत को अधिकार नहीं प्रदान करती है।

अनधिकृत जातक ज्योतिषी हेतु उदाहरण

यहां दो पंचांगों की लग्न सारणी दी गयी है मिथिलदेशीय पंचांग और हृषीकेश पंचांग। हृषीकेश पंचांग की प्रथम लग्नसारणी के ऊपर तो आधार अक्षांश हेतु काशी और अयनांश २४/००/०० बताया गया है, अक्षांश २५/१८ और पलभा ५/४५ की जानकारी मुख्य पृष्ठ पर ही दी गयी है। इससे इतना तो ज्ञान हो जाता है कि यदि २८/३० – २३/३० आदि अक्षांशों के जातक का लग्नानयन करना हो तो उसके लिये उपर्युक्त नहीं है, अयनांश में कितना अंतर है जो लग्नानयन में अपेक्षित है आदि।

किन्तु मिथिला देशीय पंचांग की लग्नसारणी में तो कुछ बताया ही नहीं गया है कि यह सायन है अथवा निरयण, यदि सायन है तो कितने अयनांश २३ अथवा २४ से बनाया गया है, अक्षांश और पलभा क्या है अर्थात यदि हमें किसी अन्य अक्षांश पलभा के लिये लग्नानयन करना हो तो यह समझ सकें।

मिथिलादेशीय पंचांग वाली प्रथम लग्नसारणी विश्वविद्यालय पंचांग से ली गयी है और हमें अक्षांश, रेखांश, पलभा अन्यत्र मिल गयी जो इस प्रकार है : अक्षांश २६/३५ उत्तर, रेखांश ८५/३० पूर्व, षडंगुल पलभा। तथापि यदि आपके पास पंचांग है तो आप ढूंढने का प्रयास करें कि कहां पर बताया गया है, कठिनता से ज्ञात कर पायेंगे। जिसे ज्ञात ही नहीं वह तो ३०/०० अक्षांश अर्थात सप्ताङ्गुल पलभा हेतु भी इसी लग्नसारणी से लग्नानयन करेगा।

हृषीकेश पंचांग में अयनांश २४/००/०० अंकित है अतः यदि ३०/०४/२०२५ की जन्मपत्रिका बनानी हो तो २४/१२/३६ अयनांश से अंतर ०/१२/३६ का प्रयोग करते लग्नानयन किया जायेगा, किन्तु मिथिलादेशीय पंचांग की लग्नसारणी में अयनांश तो बताया ही नहीं गया है फिर अंतर कैसे ज्ञात किया जायेगा ?

नीचे दोनों ही पंचांगों की लग्न सारणी दी गयी है और हम दिनांक १४/०४/२०२५, स्थान रांची, इष्टकाल ८/५१ का लग्न ज्ञात करते हैं : सूर्य राश्यादि ०/०/०/३३ (हृषीकेश पंचांग से औदयिक) और ०/०/४४/२० (विश्वविद्यालय पंचांग से मिश्रमानकालिक) है। दोनों ही पंचांगों की प्रथम लग्नसारणी से हमें मेष राशि के ० अंश का मान होगा :

मिथिलादेशीय पंचांग की प्रथम लग्नसारणी
मिथिलादेशीय पंचांग की प्रथम लग्नसारणी
हृषीकेश पंचांग की प्रथम लग्नसारणी
हृषीकेश पंचांग की प्रथम लग्नसारणी

विश्वविद्यालय पंचांग से

  • , २/४७/८ विश्वविद्यालय (०/०)
  • + ८/५/० इष्टकाल
  • =११/३७/८ इष्टकाल योग करने पर
  • ११/४१/१८ निकटतम मिथुन राशि के ० अंश का मान

११/४१/१८ जो कि ११/३७/८ का निकटतम है अर्थात विश्वविद्यालय पंचांग से लग्न : २/०

हृषीकेश पंचांग से

  • , २/४९/११ विश्वविद्यालय (०/०)
  • + ८/५०/० इष्टकाल
  • = ११/३९/११ इष्टकाल योग करने पर
  • ११/३७/३५ निकटतम वृष राशि के २९ अंश का मान

११/३७/३५ जो कि ११/३९/११ का निकटतम है अर्थात हृषीकेश पंचांग से लग्न : १/२९

रांची का अक्षांश २३/२१ है जिसकी पलभा ५/१०/५० से स्वोदय साधन करके ही शुद्ध लग्न ज्ञात किया जा सकता है, दोनों में से किसी सारणी से नहीं। अथवा यदि किसी २३ अक्षांश का लग्नसारणी उपलब्ध हो तो उसका उपयोग किया जा सकता है। जबकि रांची में इन्हीं दोनों में से कोई एक प्रयोग किया जाता है।

अनधिकृत जातक ज्योतिषी इस अंतर को समझ भी नहीं सकता है, और यदि समझने के पश्चात् विकल्पविहीन हो तो हृषिकेश पंचांग की लग्नसारणी निकटतम होगी यह भी नहीं समझ सकता। और जो इतना नहीं समझ सकता वह जन्मपत्रिका बनाने का अधिकारी नहीं हो सकता।

अब जाकर यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि आपको अक्षांश, पलभा, चरखण्ड, लंकोदय, स्वोदय का ज्ञान नहीं है तो इन गंभीर बिंदुओं को समझ भी नहीं सकते और यह चर्चा कितनी महत्वपूर्ण है। यदि आप उक्त श्रेणी के जातक ज्योतिषी हैं भी तो आपके लिये अब इन विषयों का ज्ञान अपेक्षित हो जाता है जो आगे दी जा रही है।

पृथ्वी का अक्षीय झुकाव और उसके परिणाम

पृथ्वी अपने अक्ष पर २३/२६/०९ झुकी हुयी है जो प्रतिवर्ष कुछ कम हो रहा है। यदि पृथ्वी झुकी न होती तो दिनमान-रात्रिमान का न्यूनाधिक होना, ऋतुओं का परिवर्तन, दक्षिणायण, उत्तरायण, दक्षिण गोल, उत्तर गोल आदि कुछ न होता। इसी प्रकार सभी लग्नों का मान ५ घटी अर्थात २ घंटा होता। किन्तु पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी हुयी है और इसी कारण उत्तरायण, दक्षिणायन, उत्तर गोल, दक्षिण गोल, ऋतुओं में परिवर्तन, दिनमान व रात्रिमान का न्यूनाधिक होना आदि होता है। और यही कारण है कि सभी राशियों का उदयास्त मान भी असमान होता है अर्थात एक समान नहीं होता है।

यद्यपि इनके कारण परिभ्रमण गति कहे जाते हैं, किन्तु पृथ्वी का अक्षीय झुकाव न होता तो परिभ्रमण गति के कारण इनमें से कोई परिवर्तन नहीं होता। प्रत्येक स्थान की ऋतुयें वर्ष भर एक समान होती अर्थात जहां शीत हो वहां सदैव शीत, जहां ग्रीष्म हो वहां सदैव ग्रीष्म ऋतु ही रहती। इसी प्रकार किसी स्थान विशेष के दिनमान-रात्रिमान में भी कोई अंतर नहीं आता। जहां दिनमान-रात्रिमान २८/०० – ३२/०० होता वहां वर्ष पर्यन्त यही रहता और जहां ३२/०० – २८/०० होता वहां सदैव यही होता।

पृथ्वी की तृतीय गति

जब हम पृथ्वी की तृतीय गति के बारे बात कर रहे हैं तो यह एक नया तथ्य प्रतीत होता है और मन में एक प्रश्न उत्पन्न हो रहा है कि कोई भी तृतीय गति के बारे में क्यों नहीं बताता है। पृथ्वी अपने अक्ष पर प्रतिदिन एक बार घूम जाती है जिसे दैनिक गति अथवा घूर्णन गति कहते हैं, और इसी प्रकार विशेष पथ पर घूमते हुये एक वर्ष में सूर्य की परिक्रमा पूर्ण करती है जिसे परिक्रमण गति या परिभ्रमण गति कहा जाता है। इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास भी नहीं है कि जो तृतीय गति है वो कभी कहीं क्यों नहीं बताया जाता है।

सभी खगोलीय पिण्ड अनंत आकाश में स्वतंत्र रूप से अटके हुये भी हैं और अदृश्य बंधन से परस्पर बंधे हुये भी हैं। निराधार कहना तो अज्ञानता के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा, अर्थात हमें आधार भले ही न ज्ञात हो किन्तु निराधार नहीं है। जैसे वायु वेग के कारण आकाश में अनंत धूलकण उड़ने लगते हैं उसी प्रकार से सभी खगोलीय पिण्ड अनंत आकाश में उड़ रहे हैं।

धूलकणों के आकाश में उड़ने का कारण वायु वेग होता है और आधार भी वायु ही बन जाता है, मूल आधार पृथ्वी ही होती है अर्थात सभी धूल कण वायुवेगवश कुछ काल के लिये ऊपर में उड़ने किन्तु वो पृथ्वी का ही अंश होती है और उसका आधार पृथ्वी ही होता है एवं कुछ काल पश्चात् वो पुनः पृथ्वी पर स्थित हो जाती है।

वेद-पुराणों में आधार की जानकारी दी गयी है और ब्रह्म ही सबके आधार हैं। महाप्रलय में सभी ब्रह्म में समाहित हो जाता है और पुनः सृष्टि का प्रारम्भ होने पर वायु वेग से उड़के धूल कणों के समान उड़ने लगता है।

अस्तु सभी खगोलीय पिण्डों की स्थिति को इस उदाहरण से समझने का प्रयास किया जा सकता है कि जिस प्रकार वायुवेगवश धूलकण आकाश में उड़ने लगते हैं उसी प्रकार से सभी खगोलीय पिण्ड भी अनंत आकाश में उड़ते रहते हैं।

यदि घड़ी के पेण्डुलम को खगोलीय पिण्ड के आकार का अर्थात गोलाकार कर दिया जाय और घूर्णन गति, परिभ्रमण गति आदि भी स्थापित कर दिया जाय तो वह खगोलीय पिण्ड की भांति ही तीन गति से युक्त हो जायेगा। पेंडुलम में एक ही गति होती है दोलन गति, यदि अन्य दो गतियों से युक्त कर दिया जाय तो तीन गति हो जायेगी : घूर्णन गति, परिभ्रमण गति और दोलन गति।

पृथ्वी में इसी प्रकार से तीन गतियां हैं और तृतीय गति है दोलन गति। पृथ्वी का अक्षीय झुकाव परिवर्तनशील है यह कभी दक्षिण की ओर झुका होता है तो कभी उत्तर की ओर। अर्थात पृथ्वी की एक गति ऐसी भी है जिसके कारण अपने अक्ष पर कभी दक्षिण की ओर झुक जाती है और पुनः वापस आते हुये उत्तर की झुक जाती है, फिर पुनः वापस दक्षिण की ओर झुकती है। पृथ्वी की धूरी को पेंडुलम माने तो वह पेंडुलम दोलन गति से युक्त है। किन्तु यह गति अत्यल्प है और लगभग ४१००० वर्षों में इसका एक चक्र पूर्ण होता है।

पृथ्वी के इस तृतीय गति अर्थात दोलन गति की अधिक चर्चा तो हम नहीं कर सकते हैं और यह खगोलविदों विषय है की इस दोलन गति पर भी विस्तृत अध्ययन करें। वर्तमान में हमें यह ज्ञात होता है कि पृथ्वी का यह अक्षीय झुकाव जो दक्षिण की ओर है और २०२५ में २३/२६/०९ है वह घटता जा रहा है अर्थात इस दोलन गति के अनुसार पृथ्वी का अक्षीय दोलन अपने दक्षिण झुकाव का चक्र पूर्ण करके उत्तरी झुकाव की ओर आगे बढ़ रही है।

पलभा

इस झुकाव के कारण पृथ्वी का अन्य सभी खगोलीय पिण्डों के साथ एक विशेष कोणीय स्थिति बनती है एवं सूर्य के साथ भी एक विशेष कोण बनता है। यह कोणीय स्थिति जब सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत होता है। पृथ्वी सतह के भिन्न-भिन्न स्थानों पर यह कोणीय स्थिति भी भिन्न-भिन्न होती है और परिवर्तनशील भी होती है। किन्तु सूर्य जब भूमध्य रेखा पर स्थित होता है तब की स्थिति को ज्ञात करके अन्य दिनों की कोणीय स्थिति, उदयास्त आदि ज्ञात किया जाता है।

स्थान विशेष के कोणीय स्थिति को पलभा कहा जाता है जिसे छाया द्वारा अंगुलादि में व्यक्त किया जाता है। स्थान विशेष की पलभा के माध्यम से ही राशियों के उदयमान (उदित रहने का काल) ज्ञात किये जाते हैं।

सूर्य के विषुवत रेखा पर रहते हुये मध्याह्न काल में द्वादशांगुल शंकु की छाया को मापने की प्राचीन विधि थी और इसी को पलभा कहा जाता है। वर्त्तमान में हमें उक्त विधि की आवश्यकता नहीं होती है बस थोड़ी सी गणितीय क्रिया करके ज्ञात कर सकते हैं। हाँ यदि किसी स्थान का अक्षांश ज्ञात न हो तो प्राचीन विधि की आवश्यकता पड़ सकती है। वर्त्तमान में हम किसी भी स्थान का अक्षांश पल भर में ज्ञात कर सकते हैं और अक्षांश के द्वारा ही पलभा को भी ज्ञात कर सकते हैं। पलभा ज्ञात करने का सूत्र इस प्रकार है :

पलभा = tanअक्षांश × 12

पलभा ज्ञात करने का उदाहरण

मिथिलादेशीय पंचांगों में षडङ्गुल (६/०/०) पलभा लिया जाता है इसी प्रकार हृषीकेश पंचांग में ५/४५/००, शताब्दि पंचांग में ६/१९/०० लिया जाता है। हमें इनके अक्षांश लेकर उपरोक्त सूत्र से पलभा ज्ञात करेंगे । मिथिलादेशीय पंचांग २६/३५ अक्षांश, हृषिकेश पंचांग २५/१८ अक्षांश और श्रीवेंकटेश्वर शताब्दि पंचांग २७/४५ अक्षांश ग्रहण करते हैं। तदनुसार सूत्र से तीनों के पलभा इस प्रकार ज्ञात होते हैं :

  • मिथिलादेशीय पंचांग २६/३५ : tan26/35 × 12 = 6/0/17 (6/0)
  • हृषिकेश पंचांग २५/१८ : tan25/18 × 12 = 5/40/20
  • श्रीवेंकटेश्वर शताब्दि पंचांग २७/४५ : tan27/45 × 12 = 6/18/49

इसी प्रकार से जातक का जो भी जन्म स्थान हो उसके अक्षांश से पलभा ज्ञात किया जा सकता है।

हमें जिस जातक की शुद्ध जन्मपत्रिका बनानी हो उस जातक के जन्म स्थान का अक्षांश और रेखांश ज्ञात करना चाहिये। रेखांश से देशांतर ज्ञात हो जाता है जिसके द्वारा समय में परिवर्तन किया जाता है एवं अक्षांश के आधार पर चरमिनट ज्ञात किया जाता है जिससे सूर्योदय, सूर्यास्त, दिनमान आदि ज्ञात किये जाते हैं एवं अक्षांश के द्वारा ही पलभा ज्ञात करके ही चरखण्ड बनाकर राशियों का स्वोदय बनाया जाता है। जब हम शुद्ध स्थानीय सूर्योदय ज्ञात करते हैं तभी हम शुद्ध इष्टकाल भी ज्ञात कर सकते हैं।

चरखण्ड

लंकोदय को हम आगे समझेंगे जिसमें चरखण्ड संस्कार करके स्वोदय ज्ञात किया जाता है, और उससे पहले हम चरखण्ड ज्ञात करने की विधि ही समझेंगे। लग्नसारणी भी इसी विधि से प्राप्त किसी विशेष अक्षांश के चरखण्ड से प्राप्त स्वोदय के द्वारा बनायी जाती है अर्थात यदि हम चरखण्ड ज्ञात करके स्वोदय ज्ञात करना सीख लें तो अपने स्थान का जहां की अधिकतम जन्मपत्रिका बनानी हो यदि उसका किसी पंचांग में लग्नसारणी उपलब्ध न भी हो तो स्वयं ही बना सकते हैं।

चरखण्ड का वास्तविक तात्पर्य है वह चार खण्ड (भाग) जिसमें प्रतिवर्ष सूर्य भ्रमण करता है। चार खण्ड से तात्पर्य है पृथ्वी के भूमध्य रेखा को लंबवत काटते हुये एक अन्य रेखा हो तो वहां चार कोण ९० – ९० अंश के बनेंगे और सूर्य एक वर्ष इन चारों खंडों की यात्रा पूर्ण करेगा, अर्थात एक खंड की यात्रा में ३ माह लगेंगे। यहां माह का तात्पर्य एक राशि का भोग करना है। एक राशि में ३० अंश होते हैं और ३ राशियों के योग करने पर ९० अंश होते हैं इस प्रकार एक-एक खंड में तीन-तीन राशियां आती हैं।

  • प्रथम खण्ड की राशियां : मेष, वृष, मिथुन
  • द्वितीय खण्ड की राशियां : कर्क, सिंह, कन्या
  • तृतीय खण्ड की राशियां : तुला, वृश्चिक, धनु
  • चतुर्थ खण्ड की राशियां : मकर, कुम्भ, मीन

चरखण्ड को यदि और सरल शब्दों में समझने का प्रयास करें तो इस प्रकार से समझ सकते हैं कि :

वर्ष में दो अयन और दो गोल होते हैं अर्थात सूर्य ६ माह उत्तरायण होता है और ६ माह दक्षिणायन, इसी प्रकार ६ माह उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित होता है तो ६ माह दक्षिणी गोलार्द्ध में। किन्तु अयन परिवर्तन कर्क और मकर संक्रमण से होता है एवं गोल परिवर्तन मेष व तुला संक्रमण से। अर्थात हमें इन चारों संक्रमणों/परिवर्तनों को ध्यान में रखना होगा।

भचक्र के जो चार खंड बनते हैं वह तीन-तीन राशियों से ही बनते हैं जिसमें ९० अंश (३० × ३) बनता है। इस प्रकार चारों चरखंडों को मिलाकर ३६० अंश हो जाता है (९० × ४)

चरखंड को समझें
चरखंड को समझें
  1. मेष संक्रमण करके जब सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है तो प्रथम चरखण्ड होता है जिसमें तीन माह तक रहते हुये मेष, वृष और मिथुन राशियों का भोग करता है।
  2. कर्क संक्रमण तक सूर्य उत्तरायण रहता है किन्तु कर्क संक्रमण के पश्चात् दक्षिणायन हो जाता है और द्वितीय चरखण्ड में प्रवेश कर जाता है एवं तीन माह तक द्वितीय चरखण्ड की तीन राशियों कर्क, सिंह व कन्या का भोग करता है।
  3. तुला संक्रमण तक सूर्य उत्तरी गोल में रहता है और तुला संक्रमण के साथ ही सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवेश कर जाता है जो तृतीय चरखण्ड है और इसमें सूर्य तीन राशियों तुला, वृश्चिक व धनु का भोग करता है।
  4. मकर संक्रमण तक सूर्य दक्षिणायन रहता है किन्तु मकर संक्रमण करते ही उत्तरायण हो जाता है एवं चतुर्थ चरखण्ड में प्रवेश करके तीन माह तक मकर, कुम्भ व मीन राशियों का भोग करता है।

इस प्रकार इन चारों खंडों अर्थात चरखण्ड में तीन-तीन राशियां हैं जो पृथ्वी के दैनिक गति जिसे घूर्णन गति कहते हैं के अनुसार प्रतिदिन उदयास्त होती है, और इनमें से जो राशि पूर्वी क्षितिज में उदित रहती है उसे ही लग्न कहते हैं। प्रत्येक राशि अथवा लग्न में ३० अंश होते हैं किन्तु भूमध्य रेखा से दूरी (अक्षांशीय अंतर) के कारण सबके उदित रहने का काल समान नहीं होता है अर्थात असमान होता है।

जन्म समय अथवा किसी भी समय के उदित लग्न को ज्ञात करने के लिये इसी उदय मान के अनुसार गणित किया जाता है, इष्टकाल तक के भुक्त राशियों का मान एकत्र करने पर उदित राशि अथवा लग्न ज्ञात हो जाता है, पुनः उदित राशि के मान में भुक्त ज्ञात करने पर स्पष्ट लग्न ज्ञात हो जाता है।

लंकोदय

लंकोदय का तात्पर्य है भूमध्य रेखा पर लग्नों का मान अर्थात भूमध्य रेखा पर राशियां जितने काल के लिये उदित होती है उसे लंकोदय कहा जाता है। लंकोदय कहने का तात्पर्य है कि लंका को भूमध्य रेखा पर माना गया था और वहां पर विभिन्न राशियों के उदयमान ज्ञात करके तदनुसार गणित करते हुये अन्य स्थानों का उदयमान ज्ञात किया जाता था।

वर्तमान में हम भूमध्य रेखा को लंका से आगे समुद्र में देखते हैं और गणना के लिये वहां जाने की आवश्यकता ही नहीं है उपग्रहों के माध्यम से ही प्राप्त कर सकते हैं किन्तु प्राचीन काल में लग्नोदय मान ज्ञात करने के लिये वहां जाकर लम्बे काल तक ठहरने की आवश्यकता थी और अधिकतम लंका में ही ठहरा जा सकता था। इस कारण निकटतम होने से लंका का ही उदयमान ग्रहण किया गया।

२४ अंश परमक्रांति मानकर भूमध्य रेखा का लग्नोदय मान अर्थात लंकोदय इस प्रकार है :

  1. मेष : २७९ पल
  2. वृष : २९९ पल
  3. मिथुन : ३२२ पल
  4. कर्क : ३२२ पल
  5. सिंह : २९९ पल
  6. कन्या : २७९ पल
  7. तुला : २७९ पल
  8. वृश्चिक : २९९ पल
  9. धनु : ३२२ पल
  10. मकर : ३२२ पल
  11. कुम्भ : २९९ पल
  12. मीन : २७९ पल

स्वोदय

स्वोदय का तात्पर्य है कि भिन्न-भिन्न स्थानों पर लग्नों का उदय मान भिन्न-भिन्न होता है और जिस स्थान (अक्षांश) का लग्नोदय मान ज्ञात किया गया हो वह वहां का स्वोदय होता है। जिस किसी जातक की जन्मकुंडली बनानी हो उसके लिये उदित लग्न को ज्ञात करना आवश्यक होता है और लग्न ज्ञात करने के लिये उससे पहले स्वोदय ज्ञात करना होता है। स्वोदय ज्ञात करने के पश्चात् सूर्योदय की लग्न राश्यादि से इष्टकाल तक व्यतीत राशियों की गणना करके ही उदित लग्न ज्ञात होता है।

विभिन्न स्थानों (अक्षांशों) की लग्न सारणियां भी वास्तव में सूर्योदय काल के लग्न से इष्टकाल तक व्यतीत लग्न ज्ञात करने के लिये स्वोदय मान के आधार पर ही बनायी जाती है। इस प्रकार यदि जातक जन्म स्थान की लग्नसारणी हो अथवा स्वोदय मान के द्वारा लग्न ज्ञात करें दोनों एक ही होगा। किन्तु यदि लग्न सारणी जातक के जन्मस्थान से भिन्न अक्षांश का हो तो अक्षांश भेद से स्वोदय मान में अंतर आता है और ज्ञात लग्न में भी अंतर होता है।

इसलिये किसी भी जन्म कुंडली को बनाने के लिये स्वोदय मान से ही गणना करनी चाहिये। यदि विस्तृत गणितीय विधि से लग्नानयन न करके सारणी विधि से ही लग्न ज्ञात करना हो तो उसी अक्षांश और अयनांश की लग्नसारणी से लग्नानयन करना चाहिये जो जातक के जन्म स्थान का हो।

अब हमें यह जानना भी आवश्यक है कि स्वोदय कैसे बनाते हैं ?

लंकोदय से स्वोदय ज्ञात करने के लिये सर्वप्रथम हमें जातक के जन्मस्थान का अक्षांश ज्ञात करना होता है तदनन्तर अक्षांश से पलभा ज्ञात करना होता है और फिर पलभा से चरखण्ड बनाकर लंकोदय में चरखण्ड संस्कार करना होता है। लंकोदय में चरखण्ड संस्कार करने से वह स्वोदय बन जाता है।

चरखण्ड ज्ञात करना

चरखण्ड ज्ञात करने की विधि इस प्रकार है : किसी भी स्थान का चरखण्ड ज्ञात करने के लिये उस स्थान के पलभा को तीन स्थानों पर रखकर क्रमशः १०, ८ और १०/३ से गुणा करना होता है। यही तीनों चरखण्ड होते हैं।

यथा हम २५/२५ अक्षांश (बेगूसराय) का चरखण्ड ज्ञात करना चाहते हैं तो हमें सर्वप्रथम २५/२५ अक्षांश का पलभा ज्ञात करना होगा : tan25/25 × 12 = ५/४२/८ अर्थात बेगूसराय (२५/२५ अक्षांश) का पलभा ५/४२/८ अंगुलादि है। अब इस पलभा को तीन स्थानों पर रखकर क्रमशः १०, ८ और १०/३ से गुणा करने पर हमें तीनों चरखण्ड ज्ञात हो जायेंगे :

  1. ५/४२/८ × १० = ५७/१/२० पलादि (५७ पल)
  2. ५/४२/८ × ८ = ४५/३७/४ पलादि (४६ पल)
  3. ५/४२/८ × १०/३ = १९/०/२७ पलादि (१९ पल)

स्वोदय ज्ञात करना

किसी भी स्थान का स्वोदय (सायन लग्नोदय मान) ज्ञात करने के लिये लंकोदय में चरखण्ड संस्कार इस प्रकार किया जाता है :

  • मेष, वृष और मिथुन के लंकोदय मान में क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरखण्ड ऋण करें अर्थात मेष में प्रथम, वृष में द्वितीय और मिथुन में तृतीय चरखण्ड ऋण करें।
  • अगली तीन राशियों कर्क, सिंह और कन्या के लंकोदय मान में विपरीत क्रम से तीनों चरखण्ड का योग करें अर्थात कर्क में तृतीय चरखण्ड, सिंह में द्वितीय चरखण्ड और कन्या में प्रथम चरखण्ड का योग करें।
  • अगली तीन राशियों तुला, वृश्चिक और धनु में क्रमशः योग करें अर्थात तुला में प्रथम, वृश्चिक में द्वितीय और धनु में तृतीय चरखण्ड योग करें।
  • पुनः अगली तीन राशियों मकर, कुम्भ और मीन में विपरीत क्रम से तीनों चरखण्ड को ऋण करें अर्थात मकर में तृतीय, कुम्भ में द्वितीय और मीन में प्रथम चरखण्ड ऋण करें।

इस प्रकार किसी भी स्थान के द्वादश राशियों का स्थानीय (सायन) लग्नोदय मान ज्ञात हो जाता है जिसे स्वोदय कहते हैं। अब लंकोदय में बेगूसराय के चरखण्डों का संस्कार करके बेगूसराय का स्वोदय ज्ञात कर सकते हैं; बेगूसराय के तीनों चरखण्ड हैं ५७, ४६ और १९ लंकोदय में बताई गयी विधि के अनुसार इन तीनों चरखण्डों का संस्कार इस प्रकार किया जायेगा :

राशिलंकोदयसंस्कारचरखण्डस्वोदय
मेष२७९५७ (प्रथम)२२२
वृष२९९४६ (द्वितीय)२५३
मिथुन३२२१९ (तृतीय)३०३
कर्क३२२+१९ (तृतीय)३४१
सिंह२९९+४६ (द्वितीय)३४५
कन्या२७९+५७ (प्रथम)३३६
तुला२७९+५७ (प्रथम)३३६
वृश्चिक२९९+४६ (द्वितीय)३४५
धनु३२२+१९ (तृतीय)३४१
मकर३२२१९ (तृतीय)३०३
कुम्भ२९९४६ (द्वितीय)२५३
मीन२७९५७ (प्रथम)२२२

ज्ञात किया गया स्वोदय मान सही है अथवा नहीं इसके लिये सभी मानों का योग करें और योग ३६०० पल होना चाहिये। अहोरात्र में ६० घटी होते हैं और इसे पल बनाने पर ६० × ६० = ३६०० होता है। इसमें यदि १ पल भी न्यूनाधिक हो तो कहीं न कहीं स्वोदय बनाने में त्रुटि होती है।

इस प्रकार हमने पलभा, चरखण्ड और स्वोदय ज्ञात करना सीख लिया है। अब अगले आलेख में स्वोदय के द्वारा लग्नानयन करना भी सीखेंगे।

निष्कर्ष : जैसे जन्मपत्रिका का आधार इष्टकाल होता है और इष्टकाल का आधार सूर्योदय उसी प्रकार से कुंडली का आधार लग्न होता है। लग्न यदि शुद्ध न हो तो कुंडली भी त्रुटिपूर्ण हो सकती है। यदि षड्वर्ग, सप्तवर्ग, षोडशवर्ग आदि बनाना हो तब तो शुद्ध लग्न ज्ञात करना अनिवार्य हो जाता है। शुद्ध लग्न ज्ञात करने के लिये स्वोदय मान का प्रयोग करना आवश्यक होता है। इस आलेख में अक्षांश से पलभा बनाना, पलभा से चरखण्ड बनाना और फिर लंकोदय में चरखण्ड संस्कार पूर्वक स्वोदय बनाना बताया गया है।

ज्योतिष गणित सूत्र

  • दंड/पल = घंटा/मिनट × 2.5 अथवा घंटा/मिनट + घंटा/मिनट + तदर्द्ध
  • घंटा/मिनट = दण्ड/पल ÷ 2.5 अथवा (दण्ड/पल × 2) ÷ 5
  • इष्टकाल = (जन्म समय – सूर्योदय) × 2.5

विद्वद्जनों से पुनः आग्रह है कि आलेख में यदि किसी भी प्रकार की त्रुटि मिले तो हमें टिप्पणी/ईमेल करके अवश्य अवगत करने की कृपा करें।

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