यदि ज्योतिष में आपकी थोड़ी भी रूचि है तो आप पंचधा मैत्री (panchadha maitri) से अनभिज्ञ नहीं होंगे। शब्दार्थ से जो अर्थ स्पष्ट होता है वो पांच प्रकार की मित्रता है किन्तु पंचधा मैत्री का यह तात्पर्य नहीं है। मित्र, अधिमित्र, सम, शत्रु और अधिशत्रु; ग्रहों की कुंडलियों में परस्पर ये पांच संबंध होते हैं और इनका विचार करना ही पंचधा मैत्री कहलाता है और यहां हमें देखने को मिल रहा है कि पंचधा मैत्री में तो शत्रु का भी विचार होता है इसलिये इसे गंभीरता से समझना आवश्यक हो जाता है।
कुंडली में पंचधा मैत्री क्या है, कैसे विचार करते हैं – panchadha maitri
ग्रहों की पंचधा मैत्री में मित्र, अधिमित्र, सम, शत्रु और अतिशत्रु का विचार किया जाता है किन्तु ध्यान देने वाली बात यह है कि ये ग्रहों की परस्पर मैत्री-शत्रु से संबद्ध न होकर कुंडली में ग्रहों के प्रभाव में अन्य ग्रहों से होने वाले सहयोग-असहयोग द्वारा सुनिश्चित किये गए हैं। सभी जानते हैं कि चन्द्रमा को पुराणों में देवता कहा गया है किन्तु ज्योतिष में चन्द्रमा को रानी, स्त्री, स्त्रीकारक आदि कहा गया है, इसी प्रकार ग्रहों की वास्तविक मैत्री-शत्रुता का विचार न करके यहां भिन्न आधार ग्रहण किया गया है जो कि ज्योतिषियों को फलादेश करने में सहयोगी होता है और यह शास्त्रीय है अर्थात प्रामाणिक है।
पंचधा मैत्री को समझने के लिये हमें सर्वप्रथम इसके निर्धारण के दो प्रकारों को समझना होगा। ग्रहों की मैत्री दो प्रकार की होती है एक नैसर्गिक मैत्री और दूसरी तात्कालिक मैत्री और इन दोनों को समझने के पश्चात् ही पंचधा मैत्री विचार किया जा सकता है, पंचधा मैत्री चक्र का निर्माण किया जा सकता है।
पंचधा मैत्री का महत्व
पंचधा मैत्री का विचार करने से पूर्व इसका महत्व समझना भी आवश्यक है। फलादेश में हमें ग्रहों के दीप्तादि अवस्था निर्धारण की भी आवश्यकता होती है, उच्चादि निर्धारण करके फल की मात्रा का निश्चय करना चाहें तो वहां भी हमें पंचधा मैत्री चक्र की आवश्यकता होती है।
यदि हम नैसर्गिक मैत्री के आधार पर ही मित्र मान लें तो वहां त्रुटि हो सकती है क्योंकि वही ग्रह यदि तात्कालिक शत्रु हो तो सम हो जायेगा मित्र नहीं। इस कारण पंचधा मैत्री का विचार करना अत्यावश्यक हो जाता है। फलादेश करने में पंचधा मैत्री का विचार करना विशेष महत्वपूर्ण है और इसके बिना फलादेश करने में समस्या उत्पन्न हो सकती है।
किसी ग्रह की महादशा में अन्यान्य ग्रहों की अन्तर्दशा भी होती है, पुनः अन्तर्दशाओं में प्रत्यन्तर्दशायें चलती है।
अब उन दशान्तर्दशाओं में फलों का तारतम्य स्थापित करना होता है और यहां भी पंचधा मैत्री का विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इससे फलाफल प्रभावित होता है।
ग्रहों की नैसर्गिक मैत्री – naisargik maitri
सर्वप्रथम हमें ग्रहों के नैसर्गिक मैत्री को समझना आवश्यक है। नैसर्गिक मैत्री का तात्पर्य है कि यह सुनिश्चित है, कुंडली में ग्रहों की स्थिति के अनुसार इसका निर्धारण नहीं होता अपितु सूत्रों के अनुसार जो निर्धारित किया गया है वो ग्रह परस्पर किसी भी प्रकार का संबंध बना रहे हों, कहीं भी स्थित हों नैसर्गिक आधार से निर्धारित मैत्री यथावत ही रहता है।
बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् के अध्यायः ३ ग्रहगुणस्वरूपाध्यायः के श्लोक ५५ में ग्रहों के नैसर्गिक मैत्री के निर्धारण का सूत्र बताया गया है जो इस प्रकार है :
त्रिकोणात् स्वात्सुखस्वाऽन्त्यधीधर्मायुःस्वतुङ्गपाः।
सुहृदो रिपवश्वान्वे समाश्चोभयलक्षणाः॥५५॥
इसी प्रकार सत्याचार्य का भी एक वचन है जो ग्रहों की नैसर्गिक मैत्री निर्धारण का सूत्र है और ज्योतिषियों द्वारा उल्लिखित किया जाता है :
सुहृदस्त्रिकोण भवनाद्गृहस्य सुतभे व्ययेऽथ धनभवने।
स्वजने निधने धर्मे स्वोच्चे च भवन्ति नो शेषाः ॥
नैसर्गिक मैत्रीविचार में सत्याचार्य ने द्वितीय भाव का भी ग्रहण किया है जो बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में ग्रहण नहीं किया गया है। नैसर्गिक मैत्री विचार में सत्याचार्य का पक्ष ही ग्रहण किया गया है और तदनुसार ही अन्यान्य पुस्तकों में नैसर्गिक मित्रामित्र बताया गया है।
इन सूत्रों का निष्कर्ष हम निम्नलिखित बिंदुओं में इस प्रकार समझ सकते हैं :
- नैसर्गिक मैत्री का विचार ग्रहों की मूल त्रिकोण राशि से अन्यान्य राश्याधिपति के आधार पर किया जाता है।
- किसी भी ग्रह की मूलत्रिकोण राशि से २, ४, ५, ८, ९ और १२ राशियों के साथ उसकी उच्च राशि के स्वामी उसके मित्र होते हैं।
- सूर्य और चंद्र की एक-एक राशि होती है अस्तु ये एक बार में ही उक्त स्थिति के हों तो मित्र हो जाते हैं अथवा न होने पर शत्रु होते हैं किन्तु किसी के सम नहीं होते।
- अन्यान्य ग्रहों की दो राशियां होती है अतः वो एक राशि से मित्र भी हो सकते हैं एवं दूसरी राशि से शत्रु तो ऐसी दशा में उन्हें सम कहा गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो राश्याधिपति एक बार मित्र दिखे दूसरी बार नहीं वह दूसरी बार शत्रु दिखेगा एवं इस प्रकार वह न ही मित्र और न ही शत्रु होगा अपितु सम होगा।
- अन्य जो दो बार मित्र दिखें वो मित्र होते हैं, अथवा दो बार शत्रु दिखें वो शत्रु होते हैं।
अब यदि हम उपरोक्त सूत्र के अनुसार विचार करें तो चन्द्रमा का मूल त्रिकोण वृष है एवं वृष में ही उच्च भी होता है। वृष से विचार करें तो दूसरी – मिथुन, चतुर्थ – सिंह, पंचम – कन्या, अष्टम – धनु, नवम – मकर, द्वादश – मेष और उच्च वृष है जिसके स्वामी क्रमशः बुध, सूर्य, बुध, गुरु, शनि, मंगल और शुक्र हैं।
इनमें से बुध दो बार मित्र राशि का अधिपति दिखता है व शेष सूर्य, मंगल, गुरु, शुक्र व शनि एक बार। दोनों वर्णित राशियों का होने से बुध मित्र हुआ, सूर्य एक बार में ही मित्र हो गया क्योंकि इसकी दूसरी राशि नहीं है। शेष मंगल, गुरु, शुक्र व शनि सूत्र के अनुसार एक ही राशि के अधिपति हैं अर्थात उनकी एक राशियां शत्रुता का भी संकेत करती हैं अतः न मित्र हुये न शत्रु सम हो गये।
इसी प्रकार यदि हम शुक्र का विचार करें तो शुक्र का मूल त्रिकोण तुला है और तुला से द्वितीय – वृश्चिक, चतुर्थ – मकर, पंचम – कुम्भ, अष्टम – वृष, नवम – मिथुन, द्वादश – कन्या और उच्च मीन है जिसके स्वामी क्रमशः मंगल, शनि, शनि, शुक्र (स्वयं), बुध, बुध और गुरु हैं। इनमें से मंगल और गुरु एक-एक राशि के ही अधिपति हैं एक में शत्रु अतः सम होंगे, बुध और शनि की दोनों राशियां मैत्रीसूत्र से मित्र वाली हैं अतः मित्र हुये। शेष सूर्य और चन्द्र इस सूत्र से मित्र राशि के अधिपति नहीं होने के कारण शत्रु होंगे।
नैसर्गिक मैत्री चक्र – naisargik maitri chakra
उपरोक्त नैसर्गिक मैत्री सूत्र के अनुसार ही सभी ग्रहों का मैत्री विचार करने पर सारणीबद्ध करें तो इस प्रकार आता है :
| ग्रह | मित्र | सम | शत्रु |
|---|---|---|---|
| सूर्य | चं. मं. गु. | बु. | शु. श. |
| चन्द्र | सू. बु. | मं. गु. शु. श. | xxx |
| मंगल | सू. चं. गु. | शु. श. | बु. |
| बुध | सू. शु. | मं. गु. श. | चं. |
| गुरु | सू. चं. मं. | श. | बु. शु. |
| शुक्र | बु. श. | मं. गु. | सू. चं. |
| शनि | बु. शु. | गु. | सू. चं. मं. |
सारावली के चतुर्थ अध्याय (ग्रहयोनिभेदः) में श्लोक २८ और २९ नैसर्गिक मैत्री का वर्णन करता है :
मित्राणि सूर्याद्गुरुभौमचन्द्राः सूर्येन्दुपुत्रौ रविचन्द्रजीवाः।
भानुः सशुक्रः शशिसूर्यभौमा मन्देन्दुजौ शुक्रबुधौ क्रमेण॥२८॥
शुक्रार्कजौ चन्द्रमसो न कश्चित्सौम्यः शशी शुक्रबुधौ रवीन्दू।
सोमार्कवक्रा रवितस्त्वमित्रा मित्रारिशेषो न सुहृन्न शत्रुः॥२९॥
इसी प्रकार जातक पारिजात के द्वितीय अध्याय (ग्रहनामस्वरूपगुणभेदाध्यायः) में श्लोक ४२-४५ नैसर्गिक मैत्री का वर्णन मिलता है :
मित्राणि भानोः कुजचन्द्रजीवाः शत्रू सितार्की शशिजः समानः ।
चन्द्रस्य मित्रे दिननायकज्ञे समा गुरुक्ष्माजसितासिताः स्युः ॥४२॥
आरस्य मित्राणि रवीन्दुजीवाश्चान्द्री रिपुः शुक्रशनी समानौ ।
सूर्यासुरेज्यौ बुधस्य समाः शनीज्यावनिजास्त्वरीण्दुः ॥४३॥
सूर्यारचन्द्राः सुहृदस्तु सूरेः शत्रू सितज्ञौ रविजः समानः ।
मित्रे शनिज्ञौ भृगुन्दनस्येन्द्वनावरी जीवकुजौ समानौ ॥४४॥
मन्दस्य सूर्येन्दुकुजाश्च शत्रवः समः सुरेज्यः सुहृदौ सितेन्दुजौ ॥४५॥
इसी प्रकार वराहमिहिरकृत बृहज्जातकं के द्वितीय अध्याय (ग्रहयोनिभेदाध्यायः) में श्लोक १६–१७ नैसर्गिक मैत्री का वर्णन मिलता है :
शत्रू मन्दसितौ समश्च शशिजो मित्राणि शेषा रवे-
स्तीक्ष्णांशुर्हिमरश्मिजश्चसुहृदौ शेषाः समाः शेतगोः ।
जीवेन्दूष्णकराः कुजस्य सुहृदो ज्ञोऽरिः सितार्की समौ
मित्रे सूर्यसितौ बुधस्य हिमगुः शत्रुः समाश्चापरे ॥१६॥
सूरेः सौम्यसितावरी रविसुतो मध्योऽपरे त्वन्यथा
सौम्यार्की सुहृदौ समौ कुजगुरू शुक्रस्य शेषावरी ।
शुक्राज्ञौ सुहृदौ समः सुरगुरुः सौरस्य चान्येऽरयो
ये प्रोक्ताः स्वत्रिकोणभादिषु पुनस्तेऽमी मया कीर्तिताः ॥१७॥
प्रमाणों की प्रस्तुति उनके लिये आनंदवर्द्धक होते हैं जो गहन रूचि-जिज्ञासा रखते हैं, जो अधिकृत ज्योतिषी होते हैं अथवा बनना चाहते हैं। जो अनधिकृत ज्योतिषी हों भले ही रूचि रखें, या जिज्ञासु हों तो भी प्रमाणों का कोई महत्व नहीं समझते न ही देते हैं। अधिक प्रमाणों का उल्लेख करना भी विषय का विस्तार करने वाला होगा अस्तु अब और अधिक प्रमाण समीचीन नहीं है।
तात्कालिक मैत्री – tatkalik maitri

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् के अध्यायः ३ ग्रहगुणस्वरूपाध्यायः के श्लोक ५६ में ग्रहों के तात्कालिक मैत्री के निर्धारण का सूत्र बताया गया है जो इस प्रकार है :
दशवन्ध्वायसहजस्वान्त्यस्थास्तु परस्परम्।
तत्काले मित्रतां यान्ति रिपवोऽन्यत्र संस्थिताः॥५६॥
सारावली के अध्याय ४ से :
व्ययाम्बुधनखायेषु तृतीये सुहृदः स्थिताः।
तत्कालरिपवः षष्ठसप्ताष्टैकत्रिकोणगाः॥३०॥
जातक पारिजात के द्वितीय अध्याय (ग्रहनामस्वरूपगुणभेदाध्यायः) से :
अन्योन्यतः सोदरलाभमानपातालवित्तव्ययराशिसंस्थाः ।
तत्कालमित्राणि स्वगा भवन्ति तदन्ययाता यदि शत्रवस्ते ॥४१॥
इसी प्रकार वराहमिहिरकृत बृहज्जातकं के द्वितीय अध्याय (ग्रहयोनिभेदाध्यायः) में श्लोक १८ तात्कालिक मैत्री का वर्णन मिलता है :
अन्योन्स्य धनव्ययायसहजव्यापारबन्धुस्थिता-
स्तत्काले सुहृदः स्वतुङ्गभवनेऽप्येकेऽरयस्त्वन्यथा ।
द्वयेकानुक्तभपान् सुहृत्समरिपून्सञ्चिन्त्य नैसर्गिकां-
स्तत्काले च पुनस्तु तानधिसुहृन्मित्रादिभिः कल्पयेत् ॥१८॥
तात्कालिक मैत्री से सम्बंधित प्रमाणों का अवलोकन करने के पश्चात् यदि इन सूत्रों के अनुसार तथ्यों को समझने के पश्चात् यदि दो बिंदुओं में इस प्रकार समझ सकते हैं :
- तात्कालिक मित्र : किसी भी ग्रह से द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, दशम, एकादश और द्वादश भावों में स्थित ग्रह तात्कालिक मित्र होते हैं।
- तात्कालिक शत्रु : किसी भी ग्रह से प्रथम (ग्रह के साथ), पंचम, षष्ठ, सप्तम, अष्टम और नवम भावों में स्थित ग्रह तात्कालिक शत्रु होते हैं।
पंचधा मैत्री विचार
अब आगे बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् के अध्यायः ३ ग्रहगुणस्वरूपाध्यायः के श्लोक ५७ और ५८ में ग्रहों के नैसर्गिक मैत्री व तात्कालिक मैत्री के आधार पर पंचधा मैत्री के निर्धारण का सूत्र बताया गया है जो इस प्रकार है :
तत्काले च निसर्गे च मित्रं चेदधिमित्रकम्।
मित्रं मित्रसमत्वे तु शत्रुः शत्रुसमत्वके॥५७॥
समो मित्ररिपुत्वे तु शत्रुत्वे त्वधिशत्रुता।
एवं विविच्य दैवज्ञो जातकस्य फलं वदेत्॥५८॥
- तत्काले च निसर्गे च मित्रं चेदधिमित्रकम् – तत्काल और निसर्ग दोनों ही प्रकार से मित्र होने पर अधिमित्र होता है।
- मित्रं मित्रसमत्वे तु – एक प्रकार से मित्र और दूसरे प्रकार से सम हो तो मित्र होता है।
- शत्रुः शत्रुसमत्वके – एक प्रकार से शत्रु व द्वितीय प्रकार से सम होने पर भी शत्रु होता है।
- समो मित्ररिपुत्वे तु – एक प्रकार से मित्र और दूसरे प्रकार से शत्रु होने पर सम होता है।
- शत्रुत्वे त्वधिशत्रुता – दोनों ही प्रकार से शत्रु हो तो अधिशत्रु होता है।
अब हम एक उदाहरण से पंचधा मैत्री विचार करते हुये और गंभीरता से समझेंगे। उदाहरण हेतु यहां जो कुंडली दी गयी है उसका अवलोकन करें और तदनुसार समझें :
उदाहरण कुण्डली वृश्चिक लग्न की है जिसमें चन्द्रमा स्थित है। तृतीय भाव (मकर) में सूर्य और बुध है, चतुर्थ भाव (कुम्भ) में शुक्र और शनि स्थित है, पंचम भाव (मीन) में राहु स्थित है, सप्तम भाव (वृष) में गुरु स्थित है, अष्टम भाव (मिथुन) में मंगल स्थित है व एकादश भाव (कन्या) में केतु स्थित है। आगे नैसर्गिक मैत्री को ध्यान में रखते हुये अथवा सारणी से अवलोकन करते हुये तात्कालिक विचार करके पंचधा मैत्री निर्धारण करेंगे।

सर्वप्रथम नैसर्गिक और तात्कालिक चक्र को एक स्थान पर रखेंगे और अवलोकन करेंगे :
| ग्रह | नै.मित्र | नै.सम | नै.शत्रु | ता.मित्र | ता.शत्रु |
|---|---|---|---|---|---|
| सूर्य | चं. मं. गु. | बु. | शु. श. | चं. शु. श. | मं. बु. गु. |
| चन्द्र | सू. बु. | मं. गु. शु. श. | xxx | सू. बु. शु. श. | मं. गु. |
| मंगल | सू. चं. गु. | शु. श. | बु. | गु. | सू.चं.बु.शु.श. |
| बुध | सू. शु. | मं. गु. श. | चं. | चं. शु. श. | मं. सू. गु. |
| गुरु | सू. चं. मं. | श. | बु. शु. | मं. शु. श. | सू. चं. बु. |
| शुक्र | बु. श. | मं. गु. | सू. चं. | सू. चं. बु. गु. | मं. श. |
| शनि | बु. शु. | गु. | सू. चं. मं. | सू. चं. बु. गु. | मं. शु. |
नैसर्गिक और तात्कालिक चक्र के आधार पर अब पंचधा मैत्री चक्र इस प्रकार होता :
| ग्रह | अधिमित्र | मित्र | सम | शत्रु | अधिशत्रु |
|---|---|---|---|---|---|
| सूर्य | चं. | xx | मं. गु. शु. श. | बु. | xxx |
| चन्द्र | सू. बु. | शु. श. | xxx | मं. गु. | xxx |
| मंगल | गु. | xxx | सू. चं. | शु. श. | बु. |
| बुध | शु. | श. | सू. चं. | मं. गु. | xxx |
| गुरु | मं. | श. | सू. चं. शु. | xxx | बु. |
| शुक्र | बु. | गु. | सू. चं. श. | मं. | xxx |
| शनि | बु. | गु. | सू. चं. शु. | xxx | मं. |
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