अदृश्य पंचांगों का खंडन – Rejection of nondrik panchang

अदृश्य पंचांगों का खंडन

अदृश्य पंचांगों का खंडन से तात्पर्य उन तथ्यों (प्रमाणों और तर्कों) का खंडन करना है जो दृश्य पंचांग को अस्वीकार करते हुये आर्षमत कहकर अदृश्य पंचांगों के समर्थन में दिये जाते हैं। अदृश्य पंचांगों के खंडन का तात्पर्य यह कदापि नहीं समझा जाय कि सिद्धांत ग्रंथों का खंडन किया जा रहा है, ऐसा भाव/अर्थ ग्रहण करना अनर्थ लगाना होगा। पूर्व आलेख में दृक् पंचांग ही ग्राह्य है ऐसा अनेकानेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया गया था इस आलेख में अदृश्य की ग्राह्यता संबंधी जो प्रमाण-तर्क दिये जाते हैं उनका खंडन किया गया है।

अदृश्य पंचांगों का खंडन – Rejection of nondrik panchang

पूर्व आलेख में दृश्य समर्थन हेतु अनेकानेक प्रमाण एवं तर्क दोनों दिया जा चुका हैं एवं दृश्य ही ग्राह्य है यह भी सिद्ध किया गया है। किन्तु यह प्रयास तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि जो आर्षमत कहकर अदृश्य के समर्थन में कुछ प्रमाणों का विपरीतार्थ करते हुये प्रस्तुत करते हैं, एवं तर्काश्रय लेते हुये अदृश्य को ही ग्राह्य सिद्ध करते हैं उन प्रमाणों और तर्कों का खंडन न किया जाय।

दृश्य पंचांग समर्थक स्वयं के प्रमाण और तर्क तो प्रस्तुत करते हैं जो अदृश्य की ग्राह्यता को परास्त कर देता है तथापि अदृश्य समर्थकों द्वारा दिये गये प्रमाण, तर्क, विश्लेषण आदि का खंडन नहीं करते हैं जिस कारण परास्त होते हुये भी प्रतिस्पर्द्धारत प्रतीत होता है।

दृश्य और अदृश्य समर्थन में दिये गये प्रमाणों मात्र का ही अवलोकन और तुलनात्मक विवेचन करें तो मात्र प्रमाण संख्या से ही अदृश्य ग्राह्यता का पक्ष परास्त हो जाता है। तथापि अदृश्य ग्राह्यता हेतु जो भी प्रमाण, तर्क प्रस्तुत किया जाता है उसका खंडन करने से पूर्ण रूप से परास्त हुआ प्रतीत भी होगा, प्रतिस्पर्द्धारत की भ्रामक प्रतीति का निवारण होगा। इन कारण से यह आलेख पूर्व आलेख की अपेक्षा भी अधिक उपयोगी है।

आगे सर्वप्रथम उन प्रमाणों की सूची देखेंगे जो अदृश्य के समर्थन में प्रस्तुत किये जाते हैं और अदृश्य को ही आर्षमत सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।

दृश्य पंचांग (Drik Panchang) का महत्व, अदृश्य पंचांगों का खंडन - Rejection of nondrik panchang

सिद्धांत तत्त्व विवेककार के एक वचन प्रस्तुत किये जाते हैं :

अदृष्टफलसिद्ध्यर्थं यथार्काद्युक्तितः कुरु। गणितं यद्धि दृष्टार्थं तद्दृष्ट्युद्भतः सदा ॥

इसमें मुख्य कथन जो अर्द्धश्लोक से ज्ञात होता है वो है अदृष्ट फल की सिद्धि हेतु यथार्क गणित करे। यथार्क का प्रथम तात्पर्य तो यही है कि सूर्यसिद्धांत से गणित करे, तथापि द्वितीय तात्पर्य यह भी स्पष्ट होता है कि यथार्क अर्थात जो दृश्यार्क है, दृश्य हो वैसी युक्ति भी करे, यंत्रादि के माध्यम से यथार्क (दृश्य) साधन करे। यह अर्थ कदापि प्रकट नहीं होता है कि अदृश्य अर्थात स्थूल गणना करे। तत्पश्चात जो गणित दृष्टार्थ (दृष्ट साधनार्थ) बताया गया है उसी से सदा दृश्य का उद्भव होता है। अर्थात यह वचन तो दृश्य गणना का ही पोषण करता है।

तत्पश्चात इसका खंडन सूर्यसिद्धांत के वचन से ही हो जाता है। सूर्यसिद्धांत से खंडन क्यों ? क्योंकि सूर्यसिद्धांत से गणित करे यह सर्वस्वीकृत अर्थ है। एवं सर्वाधिक अदृश्य गणक जो अदृश्य को ही ग्राह्य सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं, उनकी गणना सूर्यसिद्धांत से ही अथवा सूर्यसिद्धांताधारित ही अन्य ग्रंथों से होती है। इस कारण सूर्यसिद्धांत में ही सूर्यसिद्धांत के गणित का क्या प्रयोजन बताया गया है अन्यों की अपेक्षा वही सर्वाधिक सत्य होगा।

तत्तद्गतिवशान्नित्यं यथा दृक्तुल्यतां ग्रहाः । प्रयान्ति तत् प्रवक्ष्यामि स्फुटीकरणमादरात् ॥१४॥ स्पष्टाधिकार, सूर्य सिद्धांत

उन (पूर्वोक्त) गतियों के अनुसार प्रतिदिन ग्रह जिस प्रकार दृक्तुल्य हो जाते हैं उस स्पष्टीकरण प्रक्रिया को मैं आदरपूर्वक कह रहा हूँ ॥१४॥

इस प्रकार सूर्यसिद्धांत में ही यह बताया गया है कि दृक्तुल्य/दृश्य/सूक्ष्म गणना बतायी जा रही है। जो सूर्यसिद्धांत अथवा आधारित ग्रंथों से गणना करते हैं वो सूर्यसिद्धांत के इस वचन का निरादर कैसे कर सकते हैं ? दृक्तुल्य साधन क्यों नहीं करेंगे ?

अधिक स्पष्टीकरण हेतु यह भी समझना होगा कि सूर्यसिद्धांत ही क्यों ग्राह्य है ? पंचसिद्धांतों में सूर्यसिद्धांत की श्रेष्ठता/ग्राह्यता का कोई-न-कोई तो कारण होगा ?

सूर्यसिद्धांत में ही अनेकानेक स्थानों पर दृक पद का प्रयोग किया गया है एवं दृक गणना करने के लिये प्रेरित किया गया है, किन्तु ऐसा कोई कथन नहीं दिया गया है कि पंचांगों में अदृश्य तिथ्यादि अंकित किये जायें अर्थात स्थूल गणना से आने वाले तिथ्यादि दिये जा सकते हैं। इसी तथ्य को वराहमिहिर पूर्णतः स्पष्टरूप से घोषित करते हुये कहते हैं :

पौलशति विस्फुटोऽसौ तस्यासन्नस्तु रोमकः। स्पष्टतरः सावित्रः परिशेषौ दूरविभ्रष्टौ ॥ कभी पौलश शुद्ध होता था, उसी के आसन्न रोमक भी होता था। सूर्यसिद्धांत स्पष्टतर (दृश्य) है, शेष अन्य तो भ्रष्ट हो चुके हैं।

उपरोक्त तथ्यों से सूर्यसिद्धांत की ग्राह्यता/श्रेष्ठता का कारण ज्ञात हो जाता है और वह कारण स्पष्टतर (दृक) होना है न कि अदृश्य/स्थूल होना। यदि अदृश्य ही ग्राह्य होता (मान लिया जाय) तो फिर दृक सिद्धांत का ग्रहण क्यों किया गया ? यदि दृक सिद्धांत का ग्रहण किया गया तो अदृश्य की सिद्धि कैसे हो सकती है। जो अदृश्य तिथ्यादि में अदृश्य फल की सिद्धि सिद्ध करते हैं वो अदृश्य सिद्धांत से ही गणना क्यों नहीं करते ? दृक सिद्धांत से अदृश्य गणना क्यों ?

पुनः एक अन्य प्रमाण विष्णुधर्मोत्तर पुराण का भी दिया जाता है, जिसका खंडन दृश्य ग्राह्यता की सिद्धि करने वाले नहीं कर पाते हैं किन्तु यहां उसका खंडन भी किया गया है जो विशेष उपयोगी है :

यंत्रवेधादिनाज्ञात यद्बीजं गणकैस्ततः। ग्रहणादि परीक्षेत न तिथ्यादि कदाचन ॥

विष्णुधर्मोत्तर के इस वचन का अर्थ जो बताया जाता है वो है “यंत्रादि द्वारा बीजगणना से ग्रहणादि जैसे दृश्य घटनाओं का परीक्षण करे तिथ्यादि का कदापि न करे।” किन्तु ऐसा अर्थ ही अनर्थ करना है। वास्तविक अर्थ इस प्रकार होगा “गणक द्वारा जो बीज गणना की गयी उसका यंत्रवेधादि द्वारा परीक्षण करे। किन्तु परीक्षण में नियम जोड़ा गया कि दृश्य घटनाओं (ग्रहणादि) का ही परीक्षण करे, तिथ्यादि (अदृश्य) का नहीं।”

यहां यह कहा गया है कि गणना (पंचांग) का यंत्रादि के माध्यम से वेध (सत्यापन) करे। किन्तु यह भी संभव है कि अब आगे अदृश्य ग्राह्यता के पक्षधर ये भी कहने लगे की परीक्षण करना ही नहीं चाहिये। यंत्रादि का कोई प्रयोजन ही नहीं है और न कोई आवश्यकता है। किन्तु यदि ऐसा नहीं कहते तो उन्हें अपने-अपने पंचांग में गणना से प्राप्त ग्रहणादि (दृश्य घटनायें) अंकित करना चाहिये और उसका वेध भी करना चाहिये अर्थात परीक्षण भी करना चाहिये। ग्रहण, चंद्रोदय, चन्द्रास्त आदि दृश्य घटनाओं का वेध कर दें तिथ्यादि अदृश्य घटनाओं के वेध की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी।

किन्तु ऐसा करते ही नहीं हैं, तो वेध की विधा का प्रयोजन क्या था ? वेध का पालन क्यों नहीं किया जाता है ? उसके पश्चात् जो दृश्य है उससे उधार का ग्रहणादि लेकर उसी को अग्राह्य भी सिद्ध करते हैं। दृश्य गणकों को चाहिये कि ग्रहणादि उधार (सशुल्क/निःशुल्क) देना बंद करें और पंचांग में यह अनिवार्य नियम हो कि गणितागत ग्रहणादि ही अंकित किया जाय एवं उसका वेध भी किया जाय अर्थात दृश्य में सत्यापित हो। इन भ्रमों व विवादों का समूल समापन हो जायेगा।

उपरोक्त मुख्य प्रमाण का खंडन होने के पश्चात् अदृश्य समर्थक गणक ऐसे विरोधाभासी प्रमाणों का भी जाल बुनने लगते हैं जिनमें स्वयं ही फंसकर भटकते रहा जाते हैं, किन्तु अदृश्य ग्राह्य है ऐसा सिद्ध नहीं कर पाते।

दृक् पंचांग ही ग्राह्य है

अदृश्य गणना की ग्राह्यता के समर्थकों का एक कथन यह होता है कि दृश्य की उपयोगिता यात्रा, विवाह, उत्सव, जातक आदि में दृश्य ग्राह्य है, तिथ्यानयन में नहीं, अर्थात इनका भाव यह हो जाता है कि पंचांग निर्माण मात्र व्रत-पर्वादि का निर्धारण करने के लिये किया जाता है अन्य यात्रा, विवाह, उत्सव, जातक आदि के लिये अनुपयोगी है और ये स्वयं ही स्वीकार कर लेते हैं।

इस हेतु भास्कराचार्य का वचन जो स्वयं दृग्गणित के पोषक थे दिया जाता है : यात्राविवाहोत्सवजातकादौ खेटैः स्फुटैरेव फलस्फुटत्वं। तत्पश्चात पुनः इसे भी अस्वीकार करते हुये अन्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

पुनः भास्कराचार्य का ही कथन कहकर एक दूसरा वचन प्रस्तुत करते हैं जो प्रथम वचन का विरोधी है : “स्थूलं कृतं भानयनं यदेतज्ज्योतिर्विदां संव्यवहारहेतोः। सूक्ष्मं प्रवक्ष्येथ मुनिप्रणीतं विवाहयात्राफलप्रसिद्ध्यै ॥” इसमें दृग्गणित को ही स्थूल कहा गया है एवं अदृश्य गणित को मुनिप्रणीत बताते हुये सूक्ष्म कहा गया है और यह भी कहा गया है कि स्थूल अर्थात दृक लोकव्यवहार हेतु ग्रहण करे एवं सूक्ष्म/अदृश्य/मुनिप्रणीत को विवाहयात्रादि हेतु ग्रहण करे।

अब ये भास्कराचार्य को उलझाते हैं अथवा स्वयं उलझते हैं ऐसा नहीं है ये जनमानस को भ्रमित करते हैं। भास्कराचार्य के ही दो वचनों को देते हुये एक वचन से विवाहादि हेतु दृक को ग्राह्य सिद्ध करते हैं और पुनः द्वितीय वचन बताकर अदृश्य को ग्राह्य सिद्ध करते हैं। संभवतः सिद्धि करने के लिये प्रमाणाभाव ही इसका कारण है कि स्वरचित जाल में उलझ जाते हैं।

अब ये भास्कराचार्य को उलझाते हैं अथवा स्वयं उलझते हैं ऐसा नहीं है ये जनमानस को भ्रमित करते हैं। भास्कराचार्य के ही दो वचनों को देते हुये एक वचन से विवाहादि हेतु दृक को ग्राह्य सिद्ध करते हैं और पुनः द्वितीय वचन बताकर अदृश्य को ग्राह्य सिद्ध करते हैं। संभवतः सिद्धि करने के लिये प्रमाणाभाव ही इसका कारण है कि स्वरचित जाल में उलझ जाते हैं।

अदृश्य ग्राह्यता सिद्ध करने के दुराग्रहवश आगे और भी विरोधाभासी प्रमाणों के भ्रमजाल में उलझेंगे। यहां दिये गये चित्र के माध्यम से भी इस तथ्य को समझा जा सकता है। आगे मुनिप्रणीतैः की व्याख्या करते हुये यह भी कहा गया है कि पुलस्त्य, वशिष्ठ, गर्गादि मुनिप्रणीत गणित को ग्रहण करे, तो वशिष्ठसिद्धांत से कीजिये न सूर्यसिद्धांत क्यों ? अब जब आप कहोगे कि अन्य सिद्धांतों को ग्रहण कीजिये तो फिर कहेंगे सूर्य सिद्धांत ही ग्राह्य है। कितना हास्यास्पद है ?

विरोधाभासी प्रमाणों का भ्रमजाल
विरोधाभासी प्रमाणों का भ्रमजाल

आगे पुनः महर्षि व्यास का वचन जो दृक को ग्राह्य सिद्ध करता है उसका उल्लेख करते हुये अदृश्य ग्राह्यता की सिद्धि की जाती है। इसके लिये व्यास का वचन प्रस्तुत करते हैं जिसमें यह कहा गया है कि सूर्यसिद्धांत से ही दृग्गणना की जाती है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई सिद्धांत ग्राह्य नहीं है :

सौरोपनिषदेवाद्या कल्पे त्वस्मिन् सनातनी। यामादित्यः स्वयं प्राह मयाय परिपृच्छते ॥
कालज्ञानं तु तत्सिद्धं विशुद्धं नान्यदुच्यते । तद्विरुद्धं तु यत्सर्वमपरिग्राह्यमेव तत् ॥

कहां तो प्रथम यह बताया गया कि पुलस्त्य, वशिष्ठ, गर्गादि मुनि प्रणीत गणित से अदृश्य गणना करे क्योंकि वही ग्राह्य है और पुनः व्यास जी का वचन देते हैं कि एकमात्र सूर्यसिद्धांत से गणना करे क्योंकि यही दृक्तुल्य है, सूर्यसिद्धांत ही विशुद्ध है।

सत्य स्पष्ट हो जाता है कि सूर्यसिद्धांत से ही दृक्तुल्य गणना की जा सकती है अतः यही ग्राह्य है तो फिर अदृश्य कैसे ग्राह्य सिद्ध होता है। अर्थात अदृश्य ग्राह्यता सिद्ध करने वालों द्वारा ही दृक्तुल्य गणित सूर्यसिद्धांत को ध्वनिमत से स्वीकार किया जाता है। किन्तु वर्त्तमान में वेधसिद्ध करने की आवश्यकता को अस्वीकार किया जाता है। अब यह कहा जाता है कि दृक्तुल्यता आवश्यक नहीं है, अदृश्य ही ग्राह्य है। जबकि अपेक्षा वेधसिद्धि की है।

सूर्यसिद्धांत ग्राह्य है इस कथन का तात्पर्य यही है कि दृक्तुल्य ग्राह्य है, न कि अदृश्य ग्राह्य है। वर्त्तमान में यदि सूर्यसिद्धांत से भी दृश्य की सिद्धि नहीं होती तो अपेक्षित संस्कार की आवश्यकता है न कि अदृश्यता के ग्राह्य होने की सिद्धि करना।

यदि जातक ग्रंथों में खुले मन से सभी दैवज्ञों ने दृक्तुल्यता को स्वीकारा है तो उसका तात्पर्य यह नहीं है कि मात्र जातक हेतु स्वीकार किया है। संहिता एवं होरा दोनों के लिये स्वीकार किया है। ऐसा नहीं है कि संहिता के लिये पृथक पंचांग कर होरा के लिये पृथक पंचाग निर्माण करने की आज्ञा प्राप्त होती है। यदि ऐसा हो कि होराशास्त्रियों ने दृश्य को ही मान्यता दिया है और संहिता शास्त्रियों ने अदृश्य को। यदि अदृश्यता की सिद्धि करनी है तो इस प्रकार से सिद्धि करें।

सारांश : वर्त्तमान में अधिकांश पंचांग सूर्यसिद्धांत अथवा आधारित सिद्धांतों से ही किया जाता है, किन्तु कालभेद से इसमें भी संस्कार की अपेक्षा है जिसकी उपेक्षा की जाती है और अदृश्यता की सिद्धि होती है। उपरोक्त स्थिति में अदृश्यता को ही ग्राह्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है एवं प्रमाणों का भी भ्रमजाल बुना जाता है जिसमें स्वयं ही अदृश्य समर्थक फंस जाते हैं। इस आलेख में ऐसे प्रमाणों का उल्लेख करते हुये उनका परस्पर विरोधाभास भी स्पष्ट किया गया है और खंडन भी किया गया है।

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