वर्त्तमान युग में दृक् पंचांग की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है और महत्व स्थापित हो रहा है, किन्तु स्थूल गणना करते हुये अदृश्य पंचांग कर्ताओं द्वारा अनेकानेक प्रकार से सूक्ष्म पंचांग को ही अस्वीकार्य (व्रत-पर्वादि में) सिद्ध किया जाता है। यद्यपि इस कारण से भी व्रत-पर्वादि में विवाद होता है तथापि विवाद के कारण से इस आलेख का कोई लेना-देना नहीं है एवं एक सिद्धांत से सभी पंचांग बने तो भी व्रत-पर्वादि को लेकर विवाद समाप्त नहीं होगा। इस आलेख में दृक् अर्थात दृश्य या सूक्ष्म पंचांग ही ग्राह्य है यह सिद्ध किया गया है और यह उन सभी विद्वानों के लिये भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है जो समर्थक हैं।
दृक् पंचांग की आवश्यकता अथवा सिद्धि – Value of Drik Panchang
प्रज्ञा पञ्चाङ्ग जो कि डिजिटल पंचांग पारम्परिक स्वरूप में प्रस्तुत करती है उसके लिये सर्वप्रथम तो यही सिद्ध करना आवश्यक व अनिवार्य है कि दृश्य अर्थात दृक् पंचांग (Drik Panchang) ही ग्राह्य है। जो स्थूल पंचांग प्रकाशित करते आ रहे हैं वो नाना प्रकार के तर्क-वितर्क करते हैं और स्थूल पंचांग की उपयोगिता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। किन्तु सूक्ष्म अर्थात दृश्य पंचांग के समर्थक अब कुछ जागृत हो रहे हैं, और इस विषय के समर्थन में आने लगे हैं।
एक दशक पूर्व ऐसा भी था जब इस प्रकार की चर्चा करने वाले को डांट भी सुननी पड़ती थी, अब डांट नहीं सुननी पड़ती है यही पर्याप्त है। वर्त्तमान में यह विषय चर्चित होने लगा है यही संतोषप्रदायक है और सर्वग्राह्यता हेतु त्वरा अनिवार्य नहीं है। यह विषय निरंतर विमर्श करने से ही शनैः शनैः स्थापित होगा और वर्त्तमान में इस प्रकार की व्यवस्था आरंभ हो गयी है।
सर्वप्रथम हमें यह जानना आवश्यक है कि ऐसा आवश्यक क्यों है ? ऐसा इसलिये आवश्यक है कि उन पंचांगों की सम्मान-प्रतिष्ठा भी बनी रहे जो स्थूल हैं और सकारात्मक प्रयास करते हुये सूक्ष्मता को ग्रहण करना चाहते हैं। वर्त्तमान में अनेकों दृश्य पंचांग भी प्रकाशित होने लगे हैं जिससे जनजागृत्ति बढ़ रही है और इस कारण स्थूल पंचांगकर्ताओं को बाध्य होकर स्थूल पंचांग ही ग्राह्य है इसकी सिद्धि हेतु प्रयास करना पड़ रहा है।
ये इसी क्रम से यथावत विस्तार को प्राप्त होता रहेगा, अचानक से सब-कुछ नहीं परिवर्तित होता है। किन्तु जो स्थूल गणना करने वाले हैं वो जब तक गणित को संस्कारित करके वेधसिद्धि स्थापित करेंगे तब तक अनेकानेक दृश्य पञ्चाङ्ग प्रकाशित होने लगेंगे और जनसामान्य अर्थात पुरोहित-पंडित वर्ग तक पहुंच जायेंगे। समस्या यही है कि अपेक्षा इन स्थूल गणकों से की जा रही है कि ये संस्कार मार्ग का अनुसरण करें।
यदि इनसे इस अपेक्षा का त्याग करते हुये समवर्ती रूप से दृश्य पंचांग भी प्रकाशित किये जायें तो स्वतः निराकरण हो जायेगा। इससे उत्तम और कोई निराकरण सूझ ही नहीं रहा है।
अब प्रमाण व तर्कों के द्वारा दृश्य ही ग्राह्य है और वो भी आर्षमत से; क्योंकि स्थूल गणकों द्वारा यही बताया जाता है कि आर्षमत में अदृश्य ग्राह्य है दृश्य नहीं; इसकी सिद्धि करते हैं। यह प्रमाण व तर्क उन दृश्य समर्थकों के लिये तो विशेष लाभकारी है ही, उनके लिये भी भ्रमनिवारक है जिनको आर्षमत कहकर अदृश्य गणना के ही सिद्ध होने का आश्वासन दिया जाता है।
दृश्य पञ्चाङ्ग के समर्थन में शास्त्रों के प्रमाण
दृश्य (वेधसिद्ध) गणना के पक्ष में विद्वानों (आर्षमत) का समर्थन –
वेदाङ्गज्योतिष : इत्युपायसमुद्देशो भूयोऽप्यह्नः प्रकल्पयेत्। ज्ञेयराशिं गताभ्यस्तं विभजेज्ज्ञानराशिना ॥ सर्वप्रथम लगधाचार्य का वेदांगज्योतिष में कथन है कि गणना को शुद्ध करने हेतु विविध उपायों का प्रयोग करना चाहिए अर्थात गणक दृश्यता के द्वारा गणितागत स्थिति का स्वयं ही परिक्षण करे।
सारावली : एभिः स्पष्टतरं तत्प्रत्यक्षपरीक्षणं यस्मात् ॥ सारावलीकार ने भी ये स्पष्ट कहा है की वेधसिद्ध ज्योतिषीय गणना ही नहीं करें उसका परिक्षण भी करें ।
बृहत्संहिता : सौरादीनां च मानानामसदृश योग्यायोग्यत्व प्रतिपादनपटुः ॥ ज्योतिषी लक्षण वर्णन क्रम में दृश्य की महत्ता का समर्थन बृहत्संहिता में भी किया गया है। समर्थन का तात्पर्य अदृश्य के समर्थन से नहीं दृश्य के समर्थन से ही है। प्रथमतया तो दृश्यादृश्य का ज्ञान आवश्यक कहा गया क्योंकि इसके बिना आगे की विधि संपन्न नहीं हो सकती। यदि त्रुटि का संशोधन करना ही ज्ञात न हो तो त्रुटि के ज्ञान का क्या करेंगे, जो वर्त्तमानकाल में सिद्ध भी हो रहा है।
तत्पश्चात परीक्षण की अनेकों विधियों के बारे में बताते हुये बृहत्संहिताकार लिखते हैं : सिद्धान्तभेदेऽप्ययननिवृत्तौ प्रत्यक्षसम मण्डललेखा सम्प्रयोगाभ्युदितांशकानां छाया-जलयन्त्र-दृग्गणित साम्येन प्रतिपादन कुशलः॥ बृहत्संहिता में ज्योतिषीलक्षण वर्णनक्रम में न केवल दृग्गणित करने की बात कही गयी है बल्कि तात्कालिक प्रचलित विधयों छाया, जलयंत्र साधनों द्वारा उसका परीक्षण करने का आदेश भी किया गया है। यदि दृश्य की आवश्यकता ही न हो तो उसके लिये इतने परिश्रम का निरर्थक आदेश क्यों दिया गया है।
ब्राह्मः सोरश्च वासिष्ठो रौमशः पौलिशस्तथा । सिद्धान्ता इति पंच स्यु कथ्यन्ते खलु तदिभदाः॥
स्पष्टो ब्राह्मस्तु सिद्धान्तस्तस्यासन्नस्तु रौमशः। सौरः स्पष्टतरोऽस्पष्टौ वासिष्ठः पौलिशश्च तौ॥
कदाचिद् ब्रह्मसिद्धान्तः सावित्रस्तु कदाचन। कदाचिद्रौमशः स्पष्टो न कदाचित्तथेतरौ ॥ – प्रश्नमार्ग
प्रश्नमार्ग में गणित के पञ्चसिद्धांत ग्रंथों का वर्णन करते हुये दृक गणना का समर्थन किया गया है । किन्तु इसे समझना आवश्यक है, इसमें पंचसिद्धांतों का वर्णन करते हुये यह कहा गया है कि कभी ब्रह्मसिद्धांत तो कभी सूर्यसिद्धांत और कभी-कभी रौमश भी स्पष्ट (दृश्य) होता है, अन्य दोनों कभी नहीं होते। अन्य दोनों स्पष्ट (दृश्य) नहीं होते अर्थात स्थूल (अदृश्य) होते हैं एवं इसका उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि दृश्य (स्पष्ट) ही ग्राह्य होता है अदृश्य (स्थूल) नहीं।
- और भी : अर्केन्द्रारूढोदयभांशेशाः स्पष्ट गणित शास्त्रेण । दृक्तुल्येनानेया ग्रहाश्च सर्वे तथैवान्ये ॥ यहां स्पष्टरूप से कहा जा रहा है कि स्पष्ट गणित शास्त्र द्वारा अर्थात जब जो वेधसिद्ध हो उसी से गणना करे अर्थात दृश्य गणना ही करे ।
- और भी : योगे ग्रहाणां ग्रहणेर्कसोमयोर्मौढ्ये तथा वक्रगती च पंचसु । दृष्टानुरूपं करणं यदन्वहं तेन ग्रहेन्द्रान् गणयेत्त्रिवारम् ॥ थोड़ा और आगे बढ़ते हुये कहा गया की दृश्य गणना तो करे ही साथ ही विशेष शुद्धि हेतु तीन बार गणना करे ।
- और भी : यदा यश्चैव सिद्धान्तो गणिते दृक्समो भवेत । तदा तेनैव संसाध्यं जातकं गणयेद्बुधः ॥ पंचसिद्धांतों में से जब जो दृश्य हो उसका प्रयोग करना चाहिए। यहां पर जातक का उल्लेख किया गया है जिसको आधार लेकर यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसा जातक हेतु ही नियम है, व्रत-पर्वादि हेतु नहीं।
किन्तु यदि यह नियम होता तो संपूर्ण भारत में दोनों प्रकार के पंचांग प्रचलित होते और जातक आदि हेतु दृश्य से विचार किया जाता एवं व्रत-पर्वादि हेतु अदृश्य से। अर्थात कोई जातक को लेकर ऐसा तर्क करे तो वह तर्क भी खंडित हो जाता है। अथवा यदि खण्डित न स्वीकारें तो क्या उन पंचांगों से जो जातक आदि विचार किये जाते हैं वो त्रुटिपूर्ण है, अमान्य है, और दशकों से ऐसा किया जा रहा है जिसका दोषारोपण भी पुनः उन्हीं गणकों पर जायेगा जो स्थूल गणना प्रस्तुत करते हुये उसे ही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
जो प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं उनमें से अधिकांश जातक से सम्बंधित है । तो क्या हुआ जातक के लिए अलग और व्रत-पर्व-मुहूर्त के लिए अलग पंचांग थोड़ी न बनाये जाते हैं , यदि ये केवल जातक के विषय में होता और व्रत-पर्वादि के विषय में अदृश्य का ही महत्व होता तो प्राचीनकाल से ही दो तरह के पंचांग प्रचलन में होने चाहिए थे एक दृश्य और दूसरा अदृश्य। जातक के लिए दृश्य पंचांग होता और व्रत-पर्वादि के लिए अदृश्य। सिद्धांत-संहिता-होरा जहां कहीं भी देखें सर्वत्र दृश्य को अनिवार्य सिद्ध किया गया है।
तत्पश्चात ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, गणैश दैवज्ञ, विश्वनाथ, केतकर आदि बहुत विद्वानों ने वेधसिद्ध (दृक गणना) का ही समर्थन किया है । जितना ढूंढा जायेगा प्राचीन विद्वानों के द्वारा दृश्य गणना का उतना अधिक समर्थन प्राप्त होते जायेगा बस महत्वपूर्ण ये है कि हम इसे स्वीकारते हैं या नहीं।
प्रश्न ये उठता है की न स्वीकारें तो क्यों ? इस प्रश्न को यहीं रहने देते हैं क्योंकि इसका उत्तर तो वही दे सकेंगे जो इसे नहीं मानना चाहते। यदि १-२ आधुनिक विद्वानों ने किसी कारणवश अदृश्य गणना को महत्व दे भी दिया हो तो उसे स्वीकारना कैसी बुद्धिमता है ? ये दूसरा प्रश्न है। प्राचीन ऋषी-मुनियों के मत का अनुकरण करना चाहिए या नहीं ? एक प्रश्न ये भी है ।
प्राचीन ऋषी-मुनियों में से किन-किन ने अदृश्य गणना को प्रधान मानकर महत्व दिया है ये खोज का विषय है । यदि समर्थन किया गया है तो बहुमत किस पक्ष में जाता है फिर इसे भी देखना होगा । हमें जो प्राप्त हुआ है वो दृश्य समर्थन के पक्ष में ही है ।
पुनः एक और विकट प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि अदृश्य का ही महत्व है तो पंचसिद्धांतों में से जिस सिद्धांत की गणना सर्वाधिक अदृश्य हो उसका प्रयोग करना चाहिए न कि सर्वाधिक दृश्य सिद्धांत का। किन्तु सर्वत्र इस प्रकार ही बताया गया कि जब जो दृश्य (स्पष्ट) हो उस सिद्धांत को ग्रहण करे। सिद्धांत को ग्रहण करे का क्या तात्पर्य है ? पंचांग का गणित करना अथवा कुछ अन्य?
पांचों सिद्धांतों में से जब जो दृश्य हो तब उसका ग्रहण करे ऐसा न कहकर यह कहा जाता कि जब जो सर्वाधिक अदृश्य हो उसे ग्रहण करे। और सबसे बड़ी बात यदि अदृश्यता ही ग्राह्य है तो गणना की आवश्य्कता ही क्या है ? चन्द्रमा की कला से ज्ञात हो सकता है, पूर्णिमा से पूर्णिमा तक का अदृश्य मान ग्रहण किया जा सकता है। अदृश्य ही यदि ग्राह्य है तो स्थूल पंचांगों में गणितागत तिथि देने हेतु निरर्थक प्रयास की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
वर्तमान में जो भी पंचांग प्रचलित हैं वो सर्वाधिक दृश्य सूर्यसिद्धांत से ही निर्मित किये जाते हैं या सूर्यसिद्धांताधारित ग्रहलाघव/मकरन्दानुसारणी से जो की पंचसिद्धांत के अंतर्गत सर्वाधिक अदृश्य में नहीं आता बल्कि उनमें से है जो सर्वाधिक स्पष्ट (दृश्य) का अनुगमन करता है। एक बार फिर थोड़ा गंभीर होकर से सोचें कि यदि अदृश्य गणना का महत्व होता है तो सर्वाधिक महत्व उस गणना का ही होना चाहिए जो सिद्धांत सर्वाधिक अदृश्य गणना प्रस्तुत करे।
तथापि ऐसा तो नहीं है जो सर्वाधिक दृश्य गणना प्रस्तुत करता है उस सूर्यसिद्धांत का प्रयोग आखिर क्यों किया जाता है क्योंकि इसका महत्व तो कम होना चाहिये था, जिस प्रकार वर्तमान काल में अदृश्य को ही ग्राह्य सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है और दृश्य को जातक आदि हेतु तो सूर्यसिद्धांत ग्राह्य ही नहीं सिद्ध होता क्योंकि पंचसिद्धांतों में यह सर्वाधिक स्पष्ट है। यदि वर्त्तमान में दृश्य अग्राह्य है तो भूतकाल में जब सूर्यसिद्धांत दृश्य था वह ग्राह्य कैसे सिद्ध होगा ?
जिस आधार/प्रमाण/तर्क से भूतकाल में सूर्यसिद्धांत प्रचलन में आया तदन्तर ग्रहलाघव आदि उसी आधार/प्रमाण/तर्क से वर्त्तमानकाल में भी दृश्य ही ग्राह्य सिद्ध होता है। यदि वर्त्तमान में अदृश्य समर्थकों के तर्क को स्वीकार कर लें तो सूर्यसिद्धांत (दृश्य गणना) की तो आवश्यता ही नहीं होनी चाहिए थी अपितु और भी अधिक अदृश्य गणना प्रस्तुत करने वाला सिद्धांत आना चाहिए था।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि प्रमाणों एवं तर्क के आधार पर अंततः सिद्ध यही होता है कि दृश्य गणना ही स्वीकार्य है। प्राचीन काल में छाया-जलयंत्र आदि अनेक विधियों से दृश्य की पुष्टि की जाती थी आधुनिक काल में यदि सैटेलाइट है तो इससे पुष्टि होनी ही चाहिए। वही दृश्य गणना महत्वपूर्ण एवं ग्राह्य है जिसकी यंत्रादि से पुष्टि हो सके एवं आर्षमत में सदैव ऐसा आदेश भी किया गया है ।
दृश्य गणना प्रस्तुत करते हुये दृश्य की पुष्टि शताब्दि पंचांग में भी की गयी है; एवं उसका अवलोकन वहीं करना उचित होगा तथापि चित्र के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है जिसका अवलोकन उन लोगों हेतु भी सुगम है जिनके पास शताब्दी पंचांग न हो।
अदृश्य समर्थकों के प्रमाण
दृश्य ग्राह्यता हेतु जो प्रमाण व तर्क ऊपर दिये गये वो तो पर्याप्त हैं ही, किन्तु अदृश्य समर्थकों द्वारा क्या-क्या प्रमाण दिया जाता है उसका अवलोकन और खंडन भी आवश्यक है अतः आगे उसी की चर्चा की गयी है। आगे पढ़ें ….
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