जातक ज्योतिष (गणित-प्रकरण) में हमने अब तक इष्टकाल निकालना सीखा है, और अनेकानेक अभ्यास पूर्वक शुद्ध इष्टकाल ज्ञात करना सीख चुके हैं। किन्तु जब तक गणित प्रकरण पूर्ण नहीं होता तब तक सभी क्रियाओं की पुनरावृत्ति भी होती रहेगी जिससे पर्याप्त अभ्यास हो जाये और जब जन्म कुंडली बनायें तो किसी प्रकार की त्रुटि सभावित न हो। इष्टकाल के पश्चात् लग्न ज्ञात करना होता है और यहां हम लग्न को समझेंगे एवं लग्न निकालने की विधि (lagna kaise nikale) का भी अभ्यास करेंगे।
सरलता से सीखें लग्न निकालने की विधि : lagna kaise nikale
यदि आप ऐसा सोच रहे हैं कि “चट मंगनी और पट ब्याह” अर्थात बिना किसी चर्चा के सीधे लग्न निकालने की गणितीय विधि पूर्ण कर लें तो ये अनपेक्षित नहीं है, तथापि सर्वप्रथम हम लग्न को समझेंगे और उसके ज्ञात करने की सरल विधि (सारणी विधि) को जानेंगे अर्थात दैनिक लग्न सारणी और प्रथम लग्न सारणी दोनों विधि से लग्न ज्ञात करना सीखेंगे। शुद्ध लग्नानयन अथवा सूक्ष्म लग्नानयन की गणितीय प्रक्रिया कुछ जटिल है जिसे अगले आलेखों में समझेंगे।
लग्न किसे कहते हैं अथवा लग्न है क्या ?
सर्वप्रथम तो हमें यह जानना आवश्यक है कि लग्न किसे कहते हैं अथवा लग्न है क्या ? यदि लग्न को समझे बिना आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे तो यह एक चूक होगी।
इस ब्रह्माण्ड में असंख्य पिण्ड हैं और आंखों से जितने दिखते हैं उन्हें भी नहीं गिना जा सकता। अनंत ब्रह्माण्ड में से एक हमारा सौर मंडल भी है, जिसमें पृथ्वी भी सम्मिलित है और हम सभी पृथ्वी के वासी हैं। आंखों द्वारा हम देखते भी हैं कि सूर्य-चंद्रमा व तारे बिना किसी आधार के टिका हुआ है। हम धरती पर टिके हुये हैं और धरती हमारा आधार है किन्तु अंतरिक्ष के पिंडों का कोई आधार नहीं दिखता।
हम लोगों द्वारा चलाये जाते वाहनों को देखते हैं, किन्तु ऐसे वाहनों की भी चर्चा हो रही है जिसे मनुष्य नहीं चलायेगा स्वतः चलेगा। सोचिये सड़कों पर जब इस प्रकार के वाहन चलने लगेंगे तो कैसा लगेगा। भले ही वाहन स्वयं चलने लगे, रुकने लगे फिर भी उसे मनुष्य ही नियंत्रित करेगा, मनुष्य ही बताएगा की अब चलना है, अमुक स्थान पर ईंधन भी लेना है, अमुक मार्ग से अमुक स्थान पर जाना है और अमुक स्थान पर रुकना है आदि।
इसी प्रकार हम खगोलीय पिंडों को बिना किसी चालक के चलते हुये देखते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसका कोई नियंत्रक नहीं है। कहने के लिये हम गुरुत्वाकर्षण आदि कहा जाता है किन्तु टिका कहां पर है यह नहीं ढूंढा जा सका है। वायुयान आकाश में चलता है किन्तु उसका आधार भी होता है, बिना आधार के नहीं चलता।
उपग्रह भी प्रक्षेपित किये जाते हैं किन्तु वो भी कहीं-न-कहीं से नियंत्रित ही रहता है। धरती पर पड़ी एक धूलकण वायु के प्रवाह से उड़ने लगती है, वायु में प्रवाह कैसे होता है इसका भी कारण ज्ञात किया जा सकता है किन्तु मूल कारण तक विज्ञान नहीं पहुंच पाता है। मूल कारण सनातन के शास्त्र ही व्यक्त करते हैं।
आलेख के विषय पर आते हैं, पृथ्वी भी अंतरिक्ष में स्थित एक पिण्ड है और सभी पिण्डों के चारों और असंख्य पिण्ड स्थित हैं। पृथ्वी के चारों ओर भी असंख्य पिण्ड हैं, जिन्हें रात्रिकाल में देखा भी जाता है। इनमें से कुछ प्रमुख पिण्ड को ग्रह कहा गया है। इन पिण्डों का पृथ्वी और पृथ्वीवासियों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। इनमें सूर्य प्रमुख है और अपने सौरमंडल का केंद्र सूर्य ही है। इसी प्रकार कुछ विशेष तारों के समूहों को भी चिह्नित किया गया है जिसे नक्षत्र और राशि कहा जाता है जो पृथ्वी के चारों ओर के उस आकाश में स्थित हैं जिनके द्वारा ग्रहों की भी स्थिति ज्ञात होती है।
पौराणिक काल में २८ नक्षत्र होते थे अथवा चिह्नित किये गये थे। वर्त्तमान काल में सुविधा की दृष्टि से २७ नक्षत्र कहे जाते हैं। पृथ्वी के चारों ओर ३६० अंश (डिग्री) होते हैं जिसे २७ से विभाजित करने पर (३६० ÷ २७) = ३ अंश २० कला होती है। इसी प्रकार १२ राशियां हैं जो नक्षत्रों की भांति ही विशेष तारों के समूह हैं और उनमें कल्पित करने पर विशेष आकृति प्रतीत होती जिसके आधार पर उनके नाम रखे गये हैं। ये बारह राशियां हैं : मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन।
३६० अंश को यदि १२ भागों में बांटे तो (३६० ÷ १२) = ३० अंश (डिग्री) होता है। अर्थात प्रत्येक राशि का अंशात्मक मान ३० अंश (डिग्री) होता है। पृथ्वी प्रतिदिन अपने अक्ष पर एक बार घूमती है अर्थात एक चक्र पूर्ण करती है। जिसका तात्पर्य है कि जो ३६० अंशों में चक्र पूर्ण करती है जिसके कारण सभी खगोलीय पिण्ड पूर्व से पश्चिम की दिशा में चलते हुये लगते हैं। अर्थात प्रातः काल सूर्य पूर्व में उदय होता है और संध्या काल आने पर पश्चिम में अस्त होता है। उसी प्रकार रात आरम्भ होने पर जो तारे, नक्षत्र, राशि पूर्व में दिखते हैं रात समाप्त होते समय वो पश्चिम में होते हैं।
अब हम यह समझ गये हैं कि आकाश का वो भाग जो मध्याह्न में ऊपर होता है, वो सायंकाल में पश्चिम में होता है, मध्य रात्रि को नीचे होता है और प्रातः काल पूर्व में उदित होता है।
आकाश के इसी भाग को भचक्र कहा जाता है और भचक्र में ही १२ राशियां, २७ नक्षत्र हैं। भचक्र का ही मान ३६० अंश (डिग्री) है और सभी ग्रह भी इसी भचक्र में रहते हैं एवं ज्योतिषीय गणना में इसी भचक्र (३६० अंश) में ग्रहों की स्थिति ज्ञात की जाती है।
इस भचक्र का आरंभ अश्विनी नक्षत्र, मेष राशि से माना गया है। मेष राशि के आरंभ में ० अंश होता है और समाप्ति में ३० अंश, पुनः ६० अंश तक वृष, ९० अंश तक मिथुन आदि क्रम से हैं।
जिस प्रकार हम सूर्य-चन्द्र को प्रतिदिन प्रातः काल पूर्व में उदय होते, मध्याह्न काल में सिर पर, सायंकाल पश्चिम अस्त होते देखते हैं उसी प्रकार सभी ग्रह भी प्रतिदिन उदित-अस्तंगत होते हैं। और इसी प्रकार से सभी नक्षत्र भी प्रतिदिन उदित व अस्त होते हैं एवं इसी प्रकार से द्वादश राशियां भी प्रतिदिन उदित होती है एवं अस्त भी होती है। सूर्य जिस राशि में होता है सूर्योदय के समय वह राशि भी पूर्व में उदित होती है, सूर्य जब सिर पर होता है तब वह राशि भी सिर पर होती है और सूर्य जब पश्चिम में होता है तब वह राशि भी पश्चिम में होती है।
अब जबकि हम समझ गये हैं कि प्रतिदिन क्रमशः सभी राशियां भी पूर्व में उदित होती हैं और पश्चिम में अस्त होते हैं। उपरोक्त तथ्यों को सरलता से समझाने का पूर्ण प्रयास किया गया है तथापि एक बार में समझ लेना संभव नहीं है इसकों अनेकों बार अध्ययन मनन करने पर ही समझा जा सकता है। यदि नक्षत्र-राशियों की पहचान कर लें तो रात में अवलोकन करते हुये भलीभांति समझ सकते हैं। मध्य रात्रि में जो राशि सिर पर दिखेंगी वो रात्रि समाप्ति काल में पश्चिम में दिखेगी। इसे अच्छे से समझने का प्रयास करें और तभी लग्न को समझा जा सकता है।
“लग्न क्या है : पूर्वी क्षितिज में जो राशि उदित रहती है उसे लग्न कहा जाता है।”
लग्न को लगा हुआ कहकर भी परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है। लगा हुआ तो कहां लगा हुआ ? पूर्वी क्षितिज में जहां से दिखना प्रारम्भ होता है। यद्यपि खुले नेत्रों द्वारा पूर्वी क्षितिज में स्थित नक्षत्र, राशि, ग्रह को नहीं देखा जाता कुछ ऊपर आने पर ही दर्शन होता है तथापि गणितीय क्रिया से यह ज्ञात हो जाता है और यंत्रादि द्वारा देखा भी जा सकता है।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जो राशि पूर्वी क्षितिज से लगी हो अर्थात पूर्वी क्षितिज में उदित हो उसे ही लग्न कहा जाता है। लगभग ६ घंटे के उपरांत वो राशि सिर के ऊपर होती है और लगभग १२ घंटे के पश्चात् वह राशि जो लग्न थी पश्चिम में होती है। १२ राशियां हैं, अहोरात्र (दिन-रात) में में ६० घटी, ३० मुहूर्त, २४ घंटा होता है तो औसत रूप से एक राशि २ घंटे तक लग्न होती है। सूर्योदय के समय सूर्य जिस राशि में होता है वही राशि लग्न भी होता है।
यद्यपि प्रत्येक राशि समान रूप से २ घंटे तक उदित नहीं रहती यह काल न्यूनाधिक होता है, तथापि सामान्य समझ के लिये अभी २ घंटा मानकर विचार करते हैं।
मान लिया जाय सूर्य मेष राशि के १० अंश पर है (ध्यान रखें सूर्य मेष राशि में १० अंश पर उच्च होता है) तो सूर्य की राशि अंश इस प्रकार लिखी जायेगी ०/१०/…, ठीक सूर्योदय के समय का लग्न भी जो होगा वह मेष (०/१०/…) ही होगा, जिसका १० अंश अर्थात तृतीयांश अर्थात २ घंटे के मान से ४० मिनट व्यतीत हो चुका होगा और सूर्योदय के उपरांत भी ८० मिनट तक मेष राशि ही पूर्वी क्षितिज में लगी रहेगी अर्थात मेष लग्न ही कहा जायेगा किन्तु उसके पश्चात् अर्थात सूर्योदय से ८० मिनट के पश्चात् वृष राशि उदित होगी और तब वृष लग्न कहा जायेगा।
अब हमें पूर्ण विश्वास है कि लग्न को भलीभांति समझ चुके होंगे और यदि ज्योतिषी भी हैं तो यह जानकारी अच्छी लगी होगी। जो विद्वान ज्योतिषी हैं उन्हें कुछ न कुछ त्रुटियां भी दिखी होंगी, उनसे हमारा आग्रह है कि जो त्रुटियां हैं उन त्रुटियों के प्रति ध्यानाकर्षण करने की कृपा अवश्य करें। इसके लिये टिप्पणी करें, ईमेल करें; आपकी कृपा से यह आलेख जो सीखना चाहते हैं उनके लिये और अधिक उपयोगी सिद्ध होगा।
लग्न निकालने की विधि : lagna kaise nikale
लग्न को समझने के पश्चात् अब हम लग्न ज्ञात करना सीखेंगे और इसके लिये एक उदाहरण की आवश्यकता होगी, किन्तु हम एक उदाहरण नहीं अपितु तीन उदाहरण के माध्यम से सीखेंगे, जिसके लिये हमें तीन इष्टकाल की आवश्यकता होगी जो पूर्व आलेख में निकाला गया है हम सभी विवरण वही लेंगे। यदि आपने इष्टकाल ज्ञात करना नहीं सीखा है तो इस आलेख को पढ़ें।
हमने पूर्व आलेख में जो तीन इष्टकाल ज्ञात किया है वो तीनों विवरण इस प्रकार हैं :
- प्रथम विवरण
- द्वितीय विवरण
- तृतीय विवरण
- माघ शुक्ल प्रतिपदा, गुरुवार
- दिनांक : ३०/०१/२०२५
- समय : मध्याह्न ९/२९ (9:29 am)
- स्थान : अयोध्या
- सूर्योदय : ६/३७
- संस्कारित जन्म समय : ९/१४/४८
- इष्टकाल : ६/३४/३० घटी पल में
- माघ शुक्ल पंचमी, सोमवार
- दिनांक : ३/०२/२०२५
- समय : रात्रि ११/०१ (11:01 pm)
- स्थान : कुरुक्षेत्र
- सूर्योदय : ६/३४
- संस्कारित जन्म समय : २२/२४/२०
- इष्टकाल : ३९/३५/५० घटी पल में
- माघ शुक्ल नवमी, गुरुवार
- दिनांक : ६/०२/२०२५
- समय : रात्रि २/०७ (2:07 am)
- स्थान : बद्रीनाथ
- सूर्योदय : ६/३२
- संस्कारित जन्म समय : २५/४०/५६
- इष्टकाल : ४७/५२/२० घटी पल में
अब हम इन तीनों स्थानीय जन्म समय और इष्टकाल के आधार पर दैनिक लग्नसारणी से लग्न जानेंगे और तत्पश्चात इष्टकाल के आधार पर प्रथम लग्न सारणी (मिथिला देशीय विश्वविद्यालय पंचांग) से लग्नानयन करेंगे अर्थात लग्न और अंश ज्ञात करेंगे। यहां दो तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है :
पंचांगों में दैनिक लग्न सारणी देने का उद्देश्य शुभ मुहूर्तादि हेतु लग्नकाल को जानना होता है, न कि जन्मकुंडली निर्माण हेतु उपयोग करना। कई ज्योतिषी दैनिक लग्नसारणी का प्रयोग करके ही कुंडली बनाते रहते हैं जो कई बार अशुद्ध भी होता है और इसकी संभावना वहां अधिक होती है जब लग्न का अंश १-२ अथवा २८-२९ होती है। तथापि ऐसी कुंडली में लग्न का अंश तो होता भी नहीं है।
प्रथम लग्नसारणी से ज्ञात लग्न भी सूक्ष्म नहीं होता है और यदि लग्नानयन विधि से लग्न ज्ञात किया गया हो तो उसमें भी अंश का अंतर प्राप्त होता है। अंश में अंतर होने का तात्पर्य है षड्वर्ग, सप्तवर्ग, षोडशवर्ग आदि का अशुद्ध हो जाना और लग्न जब प्रारंभ हो अथवा समाप्त हो उस समय भी अशुद्ध रहना।
तथापि लग्नानयन करना सरल कार्य नहीं है इस कारण प्रथम लग्नसारणी से लग्नानयन करने का अनुमोदन किया जाता है। लग्नानयन गणित इतना जटिल है कि यदि कुंडली में लग्नानयन गणित देने का नियम बना दिया जाये तो ९९% ज्योतिषी कुंडली बनाना छोड़ देंगे। और वो लोग जो विभिन्न माध्यमों से प्रकाण्ड ज्योतिषी बनकर राशिफल और प्रपोजल मुहूर्त बताने वाले हैं मुंह छिपाते फिड़ेंगे। इनका बल सॉफ्टवेयर और मोबाईल ऐप है जो चुटकी बजाते ही पूरी गणित करके प्रस्तुत कर देता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सूक्ष्म लग्नानयन का गणित बहुत ही जटिल है और यदि उतना समय कुंडली बनाने में ज्योतिषी देने लगें तो समय के अनुसार पारिश्रमिक मात्र भी प्राप्त नहीं होगा। इसके लिये साइंटीपिक कैलकुलेटर का प्रयोग करने पर शताब्दि पंचांग से भी ५ मिनट में लग्नानयन किया जा सकता है। ज्योतिष में कैलकुलेटर का प्रयोग करना हम अलग से समझेंगे और जो सूक्ष्म लग्नानयन सीखना चाहते हों उनके लिये सूक्ष्म लग्नानयन की विधि भी पृथक आलेख में समझेंगे।
कम्प्यूटर, मोबाइल आदि संसाधनों का तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि हम अपनी विद्या को ही तिलांजलि दे दें। कल्पना कीजिये कोई ऐसी दैवीय विनाशक लीला हो जाये जिससे ऑनलाइन दुनियां कुछ दशकों/वर्षों के लिये समाप्त हो जाये तो शुद्ध कुंडली कैसे बनायी जायेगी ?
गणित और वेध को तिलाञ्जलि देते हुये सारणी से पञ्चाङ्ग निर्माण करने की अनुचित परम्परा का ही दुष्परिणाम है कि वर्तमान में अधिकांश पारम्परिक पंचांग अदृश्य ही होते हैं और उनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी है तथापि कुतर्क करके अदृश्य को ही फलदायक सिद्ध करते हुये अपना पंचांग व्यापार करते हैं। हम यहां जिन पंचांगों के आधार पर कुंडली बनाना सीख रहे हैं वो भी वास्तव में अदृश्य पंचांग ही हैं। किन्तु करें तो क्या मिथिला में एक भी दृश्य पंचांग प्रकाशित ही नहीं होता है।
तथापि सीखने हेतु यदि इन पंचांगों का प्रयोग कर सकते हैं। अस्तु यहां सारणी विधि से जो लग्न ज्ञात होगा उसमें कई प्रकार की त्रुटियां होंगी यथा : अयनांशवश, पलभावश अन्तर नहीं हो पायेगा। इस कारण जिस स्थान की कुंडली बनानी हो उस स्थान का स्थानीय पंचांग की लग्नसारणी को ही ग्रहण करना चाहिये।
दैनिक लग्नसारणी से लग्नानयन
हम सीखने मात्र के उद्देश्य से तीनों उदाहरण का लग्न विश्वविद्यालय पंचांग और हृषिकेश पंचांग की लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करके देखेंगे। हमने उदाहरण अभ्यास हेतु जो तीन विवरण लिया है वो ऊपर दिया गया है और माघ शुक्लपक्ष २०२५ की है, यद्यपि यहां संवत अंकित करना चाहिये तथापि सहजता से समझने के लिये आंग्ल वर्ष अंकित किया गया है।
उक्त पंचांग अर्थात विश्वविद्यालय पंचांग के उसी पक्ष वाले पृष्ठ में दैनिक लग्नसारणी भी है और पंचांग देखने की विधि हम पूर्व आलेख में समझ चुके हैं वहां से जिस मास पक्ष के जन्मसमय की कुंडली बनानी हो उसी मास पक्ष की दैनिक लग्नसारणी भी लेंगे। विश्वविद्यालय पंचांग के दैनिक लग्नसारणी में लग्न प्रवेशकाल घंटा मिनट में अंकित है जो स्थानीय समय होता है। तिथि और दिन दैनिक लग्नसारणी से पूर्व ग्रहस्पष्ट सारणी के पहले होती है ।
लग्नों के नाम ऊपर में अंकित हैं और नीचे प्रतिदिन का लग्नोदय काल दिया गया है।
- हमने जो जन्म समय लिया था वो भारतीय मानक समय था।
- जन्म समय में देशांतर वेलांतर संस्कार करने पर जो समय प्राप्त हुआ वो स्थानीय जन्म समय था।
- स्थानीय जन्म समय को दैनिक लग्नसारणी में (उसी तिथि में ढूंढना है जिसमें जन्म हुआ हो) ढूंढना है, स्थानीय जन्म समय को संस्कारित जन्म समय भी कहा जा सकता है और ये भी उसी आलेख से लिया गया है। ये वह समय है जिसमें सूर्योदय को घटाकर इष्टकाल बनाया गया था। और
- जिस लग्न में वो समय हो वही लग्न होता है।
प्रथम विवरण का दैनिक लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करना
- प्रथम विवरण इस प्रकार है : दिनांक ३०/०१/२०२५, तिथि माघ शुक्ल प्रतिपदा, दिन गुरुवार, स्थानीय जन्म समय या संस्कारित जन्म समय ९/१४/४८ अथवा ९/१५ है।
- हम उक्त तिथि दिन के सामने दैनिक लग्नसारणी में स्थानीय जन्म समय या संस्कारित जन्म समय ९/१५ को ढूंढेंगे।
- जब हम दैनिक लग्नसारणी के माघशुक्ल प्रतिपदा (१) गुरुवार में स्थानीय जन्म समय ९/१५ को ढूंढते हैं तो कुम्भ के नीचे ०८/५४ मिलता है और मीन के नीचे १०/२३ है।
- इसका तात्पर्य है कुम्भ लग्न प्रातः ०८/५४ से पूर्वाह्न १०/२३ तक है।
- उदाहरण का स्थानीय जन्म समय ९/१५ है जो इसी में मिलता है और इस प्रकार कुम्भ लग्न ज्ञात होता है।
द्वितीय विवरण का दैनिक लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करना
- द्वितीय विवरण इस प्रकार है : दिनांक ३/०२/२०२५, तिथि माघ शुक्ल पंचमी, दिन सोमवार, स्थानीय जन्म समय या संस्कारित जन्म समय २२/२४/२० अथवा २२/२४ है।
- हम उक्त तिथि दिन के सामने दैनिक लग्नसारणी में स्थानीय जन्म समय या संस्कारित जन्म समय २२/२४ को ढूंढेंगे।
- जब हम दैनिक लग्नसारणी के माघशुक्ल पंचमी (५) सोमवार में स्थानीय जन्म समय २२/२४ को ढूंढते हैं तो सिंह के नीचे २०/२६ मिलता है और कन्या के नीचे २२/४१ है।
- इसका तात्पर्य है सिंह लग्न रात्रि २०/२६ से रात्रि २२/४१ तक है।
- उदाहरण का स्थानीय जन्म समय २२/२४ है जो इसी में मिलता है और इस प्रकार सिंह लग्न ज्ञात होता है।
तृतीय विवरण का दैनिक लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करना
- तृतीय विवरण इस प्रकार है : दिनांक ६/०२/२०२५, तिथि माघ शुक्ल नवमी, दिन गुरुवार, स्थानीय जन्म समय या संस्कारित जन्म समय २५/४०/५६ अथवा २५/४१ अथवा रात्रि १/४१ है।
- हम उक्त तिथि दिन के सामने दैनिक लग्नसारणी में स्थानीय जन्म समय या संस्कारित जन्म समय १/४१ को ढूंढेंगे।
- जब हम दैनिक लग्नसारणी के माघशुक्ल नवमी (९) गुरुवार में स्थानीय जन्म समय १/४१ को ढूंढते हैं तो तुला के नीचे ००/४६ मिलता है और वृश्चिक के नीचे ०३/०३ है।
- इसका तात्पर्य है तुला लग्न रात्रि ००/४६ (१२/४६) से रात्रि ०३/०३ तक है।
- उदाहरण का स्थानीय जन्म समय १/४१ है जो इसी में मिलता है और इस प्रकार तुला लग्न ज्ञात होता है।
अब एक बार पुनः स्पष्ट करना चाहूंगा कि शुभ मुहूर्त हेतु तो इस प्रकार से लग्न ज्ञात करना चाहिये किन्तु एक ज्योतिषी को जो जन्म कुंडली बना रहा हो इस प्रकार से लग्न ज्ञात करके कुंडली नहीं बनानी चाहिये क्योंकि इसमें अत्यधिक त्रुटि होती है और संभव है कि आगे प्रथम लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करते समय अथवा सूक्ष्म लग्न ज्ञात करते समय लग्न ही बदल जाये।
प्रथम लग्नसारणी से लग्नानयन
यहां मिथिला देशीय विश्वविद्यालय पंचांग की प्रथम लग्न सारणी दी गयी है और ऊपर दिये गये उदाहरण के इष्टकाल के अनुसार इस प्रथम लग्नसारणी से लग्न ज्ञात किया जा सकता है।
इसकी विधि यह है कि सूर्य स्पष्ट जो कि औदयिक होना चाहिये किन्तु पंचांग में जिस समय का दिया गया होता है उसके आधार पर ही ज्ञात करेंगे।
मिथिला पंचांगों में औदयिक सूर्य न होकर मिश्रमानकालिक होता है किन्तु अधिकतर पंचांगों में औदयिक ही होता है। सबसे बड़ी समस्या शताब्दि पंचांग से लग्नानयन करने में होती है क्योंकि उसमें दैनिक सूर्य तो होता ही नहीं है।
औदयिक सूर्य व तात्कालिक ग्रह स्पष्ट करने की विधि सूक्ष्म लग्नानयन वाले आलेख में समझेंगे। मिथिला पंचांग में मिश्रमान काल का सूर्य राश्यादि अंकित होता है अर्थात जिस दिन अंकित रहता है उस दिन की मध्य रात्रि का होता है।
यदि उस मिश्रमान कालिक सूर्य के अंश को उसी दिन का औदयिक अनुमान से करना चाहें तो दो विधि से ज्ञात कर सकते हैं :
सूर्य की प्रतिदिन १ अंश अर्थात ६० कला औसत गति होती है और अहोरात्र में ६० दण्ड होता है अर्थात सूर्य की प्रतिदण्ड औसत गति जिसका उपयोग तात्कालिक अंश (अनुमानित) हेतु करना हो तो वो १ कला होती है।
अब यह पूर्व दिन के मिश्रमान कालिक सूर्य से भी ज्ञात कर सकते हैं और वर्त्तमान दिन के मिश्रमान कालिक सूर्य से भी। वर्त्तमान दिन के मिश्रमान में जितना दण्ड है इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सूर्य लगभग कितनी कला आगे बढ़ा है अर्थात उदय काल में कितनी कला पीछे था। अर्थात यदि मिश्रमान ४५/०० हो तो इसका तात्पर्य यह है कि उदय काल में सूर्य लगभग ४५ कला पीछे था और अगले उदय काल में लगभग १५ कला और आगे होगा।
इस प्रकार यदि मिश्रमान कालिक सूर्य यदि १/०५/१२/२३ हो तो इसका तात्पर्य होता है कि उस दिन मध्यरात्रि में सूर्य वृष राशि के ५ अंश १२ कला और २३ विकला पर होंगे। १२ कला का तात्पर्य यह भी होता है कि मिश्रमान से लगभग १२ दण्ड पूर्व सूर्य ५ अंश पर आया था, अर्थात उदय काल में ४ अंश पर ही था।
“प्रथम लग्नसारणी में बांयी ओर ऊपर से नीचे मेषादि राशियों के नाम हैं और सारणी के ऊपर ३० अंश हैं“
इस प्रकार लग्न ज्ञात करने के लिये यदि तात्कालिक सूर्य स्पष्ट न भी किया गया हो तो भी अनुमान पूर्वक ही सही किन्तु तात्कालिक अंश बनाने का प्रयास करना चाहिये। तत्पश्चात
- सूर्य के राशि और अंश के आधार पर सारणी से उसका मान ज्ञात करे।
- फिर प्रथम लग्न सारणी से प्राप्त सूर्य की राशि अंश में मान में इष्टकाल का योग करे।
- योग के पश्चात् जो मान प्राप्त होता है उस मान को पुनः प्रथम लग्न सारणी में ढूंढे।
- जहां पर योग का निकटम अंक मिले उस राशि और अंश को लिखे, वही लग्न (राशि/अंश) होता है।
प्रथम लग्न सारणी से लग्नानयन करने के लिये हमें जन्मतिथि के सूर्य का राशि अंश भी ज्ञात करना होगा जिसके लिये पुनः पंचांग के उस अंश की आवश्यकता है जो उदाहरण की गणना से संबंधित है।
तीनों जन्म विवरण माघ शुक्लपक्ष २०२५ का है इस कारण यहां उक्त पृष्ठ संलग्न किया जा रहा है जिसमें हमें सूर्य की राश्यादि मिलेगी। प्रथम लग्न सारणी ऊपर ही दी जा चुकी है
प्रथम विवरण का प्रथम लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करना
- माघ शुक्ल प्रतिपदा, गुरुवार
- दिनांक : ३०/०१/२०२५
- स्थान : अयोध्या
- संस्कारित जन्म समय : ९/१४/४८
- इष्टकाल : ६/३४/३० घटी पल में
प्रथम जन्म विवरण पुनः यहां प्रस्तुत किया गया है और माघ शुक्ल प्रतिपदा, गुरुवार तदनुसार दिनांक : ३०/०१/२०२५, के लिये पंचांग से हमें जो सूर्य राश्यादि प्राप्त होती है वो है ०९/१६/४३/०६ जो कि मिश्रमानकालिक है जिसका तात्पर्य है सूर्य मकर राशि के १६ अंश, ४३ कला, ०६ विकला पर है।
सर्वप्रथम प्रथम लग्नसारणी के मकर के १६ अंश का मान ज्ञात करते हैं जो ५३/२६/१८ है। अब हम इसमें इष्टकाल का योग करेंगे : योग करने पर हमें ६०/००/४८ अर्थात ००/००/४८ प्राप्त होता है,
- ५३/२६/१८
- + ६/३४/३०
- = ६०/००/४८
- = ००/००/४८
अब हमें इसे (००/००/४८) पुनः प्रथम लग्न सारणी में ढूंढना है। प्रथम लग्नसारणी में मीन के सामने ७ अंश के नीचे ००/००/०० मिलता है और ८ अंश के नीचे ००/०९/१६ मिलता है। इसमें हमें ज्ञात होता है कि ००/००/४८ जो हम ढूंढ रहे हैं वह मान ००/००/०० के निकट है जो कि मीन राशि के सामने ०७ अंश के नीचे अंकित है इस प्रकार लग्न मीन ज्ञात होता है और अंश ०७ जिसे हम इस प्रकार लिखेंगे : ११/०७
द्वितीय विवरण का दैनिक लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करना
- माघ शुक्ल पंचमी, सोमवार
- दिनांक : ३/०२/२०२५
- स्थान : कुरुक्षेत्र
- संस्कारित जन्म समय : २२/२४/२०
- इष्टकाल : ३९/३५/३० घटी पल में
द्वितीय जन्म विवरण पुनः यहां प्रस्तुत किया गया है और माघ शुक्ल पंचमी, सोमवार तदनुसार दिनांक : ३/०२/२०२५, के लिये पंचांग से हमें जो सूर्य राश्यादि प्राप्त होती है वो है ०९/२०/४७/३० जो कि मिश्रमानकालिक है जिसका तात्पर्य है सूर्य मकर राशि के २० अंश, ४७ कला, ३० विकला पर है।
प्रथम लग्नसारणी के मकर के २० अंश का मान ज्ञात करते हैं जो ५३/५१/२४ है। अब हम इसमें इष्टकाल का योग करेंगे : योग करने पर हमें ९३/२६/५४ अर्थात ३३/२६/५४
- ५३/५१/२४
- + ३९/३५/३०
- = ९३/२६/५४
- = ३३/२६/५४
अब हमें इसे (३३/२६/५४) पुनः प्रथम लग्न सारणी में ढूंढना है। प्रथम लग्नसारणी में कन्या के सामने २५ अंश के नीचे ३३/२२/४८ मिलता है और २६ अंश के नीचे ३३/३४/०४ मिलता है। इसमें हमें ज्ञात होता है कि ३३/३५/१६ जो हम ढूंढ रहे हैं वह मान ३३/२२/४८ के निकट है जो कि कन्या राशि के सामने २५ अंश के नीचे अंकित है इस प्रकार लग्न कन्या ज्ञात होता है और अंश २५ जिसे हम इस प्रकार लिखेंगे : ५/२५
तृतीय विवरण का दैनिक लग्नसारणी से लग्न ज्ञात करना
- माघ शुक्ल नवमी, गुरुवार
- दिनांक : ६/०२/२०२५
- स्थान : बद्रीनाथ
- संस्कारित जन्म समय : २५/४०/५६
- इष्टकाल : ४७/५२/२० घटी पल में
तृतीय जन्म विवरण पुनः यहां प्रस्तुत किया गया है और माघ शुक्ल नवमी, गुरुवार तदनुसार दिनांक : ६/०२/२०२५, के लिये पंचांग से हमें जो सूर्य राश्यादि प्राप्त होती है वो है ०९/२३/५०/२४ जो कि मिश्रमानकालिक है जिसका तात्पर्य है सूर्य मकर राशि के २३ अंश, ५० कला, २४ विकला पर है।
कला कि संख्या ५० है जिसका तात्पर्य है कि मध्य रात्रि से लगभग ५० दण्ड पूर्व ही सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर चुका होगा और लगभग १० दण्ड और मकर राशि (२३ अंश) में रहेगा।
इस प्रकार नियमानुसार हमें सर्वप्रथम प्रथम लग्नसारणी के मकर के २३ अंश का मान ज्ञात करते हैं जो ५४/२४/५२ है। अब हम इसमें इष्टकाल का योग करेंगे : योग करने पर हमें १०१/७६/७२ अर्थात ४२/१७/१२ प्राप्त होता है, अब हमें इसे (४२/१७/१२) पुनः प्रथम लग्न सारणी में ढूंढना है।
- ५४/२४/५२
- + ४७/५२/२०
- =१०१/७६/७२
- = ४२/१७/१२
प्रथम लग्नसारणी में वृश्चिक के सामने ११ अंश के नीचे ४२/१०/२४ मिलता है और १२ अंश के नीचे ४२/२२/१० मिलता है। इसमें हमें ज्ञात होता है कि ४२/१७/१२ जो हम ढूंढ रहे हैं वह मान ४२/२२/१० के निकट है जो कि वृश्चिक राशि के सामने १२ अंश के नीचे अंकित है इस प्रकार वृश्चिक कन्या ज्ञात होता है और अंश १२ जिसे हम इस प्रकार लिखेंगे : ७/१२
हृषीकेश पंचांग से लग्नसारणी द्वारा लग्न ज्ञात करना
अब हम उपरोक्त तीनों उदाहरण समय के आधार पर ही हृषीकेश पंचांग से लग्न ज्ञात करेंगे।
यहां पर एक त्रुटि यह हो रही है कि हमने इष्टकाल हृषीकेश पंचांग से नहीं ज्ञात किया है और इष्टकाल में कुछ परिवर्तन संभव है। तथापि हमें लग्न मात्र ज्ञात करना सीखना भर से इसलिये उसी आधार पर लग्न ज्ञात करेंगे। यहां सभी विवरण और विश्लेषण की पुनरावृत्ति अनपेक्षित है जिस कारण मात्र सभी मानों को देंगे और गणितीय क्रिया के माध्यम से लग्न ज्ञात करेंगे संपूर्ण विश्लेषण नहीं करेंगे। प्रथम लग्नसारणी यहां संलग्न है।
सर्वप्रथम हमें पंचांग से सूर्य का राश्यादि ज्ञात करना है। विश्वविद्यालय पंचांग में सूर्य स्पष्ट मिश्रमान कालिक था किन्तु हृषीकेश पंचांग में औदयिक होता है। अर्थात इसमें सूर्य का औदयिक अंश अनुमान करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।
उदाहरण | दिनांक | सूर्य स्पष्ट | इष्टकाल |
---|---|---|---|
1 | ३०/१/२०२५ | ९/१५/५७/२३ | ६/३४/३० |
2 | ३/२/२०२५ | ९/२०/०१/४० | ३९/३५/३० |
3 | ६/२/२०२५ | ९/२३/०४/३७ | ४७/५२/२० |
प्रथम | द्वितीय | तृतीय | |
---|---|---|---|
लग्नसारणी से मकर राशि के १५, २०, २३ अंश का मान | ५३/१३/११ | ५३/५५/२१ | ५४/२०/०९ |
इष्टकाल (+) | ६/३४/३० | ३९/३५/३० | ४७/५२/२० |
योग | ५९/४७/४१ | ३३/३०/५१ | ४२/१२/२९ |
प्राप्त लग्न | ११/०५ | ५/२६ | ७/१२ |
सर्वप्रथम हमें पंचांग से सूर्य का राश्यादि ज्ञात करना है। विश्वविद्यालय पंचांग की लग्नसारणी से हमें प्रथम लग्न ११/०७ प्राप्त हुआ था, किन्तु हृषीकेश पंचांग की लग्नसारणी से ११/०५ प्राप्त हुआ। इसका कारण समझते हैं :
प्रथम उदाहरण के लिये हृषीकेश पंचांग से हमें स्पष्ट सूर्य प्राप्त होता है ९/१५/५७/२३ जो कि औदयिक है। इसका तात्पर्य है सूर्योदय के समय सूर्य मकर राशि के १५ अंश, ५७ कला और २३ विकला पर था। जबकि विश्वविद्यालय पंचांग में मिश्रमान कालिक सूर्य का अंश १६ है और उसके आधार पर लग्नानयन किया गया। इसी कारण से अंतर आ रहा है। पंचांगभेद होना भी एक कारण है।
इस प्रकार लग्न ज्ञात हो गया है और इस लग्न के आधार पर लग्न कुंडली बनायी जा सकती है एवं चंद्र कुंडली भी बनायी जा सकती है। किन्तु षोडश वर्ग अथवा सप्तवर्ग अथवा षड्वर्ग नहीं बनाया जा सकता। हमें लग्न का अंश मात्र ज्ञात हुआ है जो सूक्ष्म नहीं है और इससे नवांश कुंडली भी नहीं बनायी जा सकती है। तथापि हम प्रथमतया जन्म कुंडली बनाना, चन्द्र कुंडली बनाना ही सीखेंगे। तदनन्तर भभोग-भयात साधन कर दशान्तर्दशा बनाना सीखेंगे। इस प्रकार से सामान्य जन्मपत्रिका बनाने का गणितीय भाग संपन्न हो जायेगा। सूक्ष्म लग्नानयन, नवांश कुंडली बनाना, अथवा षोडशवर्ग बनाना आदि उसके पश्चात् सीखेंगे।
इस प्रकार से यहां ये भी स्पष्ट हो गया है कि यदि पंचांग से प्राप्त सूर्य के राशि अंश कला को यथावत ग्रहण करेंगे अर्थात अनुमान मात्र से भी तात्कालिक नहीं बनायेंगे तो लग्न का अंश शुद्ध नहीं होगा और यह त्रुटि अनेकों लोग करते हैं। यदि आप ज्योतिष सीखना चाहते हैं तो आपको इस प्रकार की त्रुटि कदापि नहीं करनी चाहिये। आगे हम तात्कालिक ग्रहस्पष्ट करना भी सीखेंगे जिसमें सूर्य को तात्कालिक बनाना भी सीख लेंगे। अभी हमने अनुमान मात्र से तात्कालिक करने का अनुसरण किया था।
सामान्य विधि से कुंडली बनाने की प्रक्रिया में तीन क्रिया होती है : इष्टकाल ज्ञात करना, लग्न ज्ञात करना और भभोग-भयात ज्ञात करना; जिसमें सबसे बड़ी गणितीय क्रिया इष्टकाल ज्ञात करना ही है।
इसी कारण सामान्य ज्योतिषी भी दृश्य (वेधसिद्ध) पंचांग और अदृश्य पंचांग अर्थात जिसकी वेधसिद्धि नहीं हो पाती का अंतर तक भी नहीं समझ पाते एवं दृक् पंचांग व उससे बनी कुंडली आदि को भी अशुद्ध कह देते हैं।
किन्तु यदि सूक्ष्म लग्नानयन की विधि को समझने पर ज्ञात होता है कि इष्टकाल ज्ञात करने की गणितीय क्रिया इसका दशमांश मात्र भी नहीं होता है।
सरल विधि से कुंडली बनाने वाले ज्योतिषी को अक्षांश-रेखांश, पलभा, चरखण्ड, अयनांश, परमक्रांति, सूर्यक्रांति, लंकोदय, स्वोदय आदि के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं होता है, पंचांग में यदि अपने जिले का देशांतर न मिले तो निकटतम जिले का लेकर गणना करेंगे किन्तु देशांतर ज्ञात नहीं कर पायेंगे। परन्तु जो शुद्ध कुंडली होगी उसे अशुद्ध कहने का दुस्साहस करने में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे।
आगे जाकर हम सूक्ष्म लग्नानयन विधि का भी अध्ययन करेंगे और उस समय उपरोक्त सभी विषयों को भी समझेंगे, परन्तु अभी हम सारणी विधि से लग्न ज्ञात करके कुंडली निर्माण करना ही सीखेंगे।
ज्योतिष गणित सूत्र
- दंड/पल = घंटा/मिनट × 2.5 अथवा घंटा/मिनट + घंटा/मिनट + तदर्द्ध
- घंटा/मिनट = दण्ड/पल ÷ 2.5 अथवा (दण्ड/पल × 2) ÷ 5
- इष्टकाल = (जन्म समय – सूर्योदय) × 2.5
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